बुधवार, 29 सितंबर 2010

समकालीन चेतना मासिक पत्रिका

समकालीन चेतना



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हरिराम और सियाराम में कोई फर्क नहीं दिखता है,
आम आदमी खास आदमी,लगभग एक मोल बिकता है ।
कुछ बिकते है पेट की खातिर,कुछ-कुछ तलब मिटाने में,
कुछ को मजबूरी बिकवाती,कुछ खुद आज जमाने में ।
अपने हाथों अपनी कीमत आज गिरा ली है ,
आज आदमी से तो मंहगे,लोटा थाली है ।
--मोहन तिवारी आनन्द

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समकालीन
चेतना
साहित्य एवं संस्कृति की मासिक पत्रिका
सितम्बर,2010
प्रवेशांक

सम्पादक
कृष्णशंकर सोनाने



सम्पर्क
136,शिडीZ पुरम
कोलार रोड़,
भोपाल मप्र-462042
दूरभाष : 0755:4229018 मो. 9424401361
ई-मेल : samkalinchetna@ymail.com

मूल्य : एक अंक 20 रूपये
सदस्यता शुल्क :

200 वाषिक 550/त्रिवाषिक

संस्थाओं के लिए
220/वाषिक 600/त्रिवाषिक

सारे भुगतान मनीआर्डर/चेक/बैंक ड्राफ्ट,समकालीन चेतना,भोपाल के नाम से देय । भोपाल के बाहर के चेक में 35 रूपये और अधिक जोड़े

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0 प्रकाशित सामग्री के उवपोग के लिए लेखक,अनुवादक एवं समकालीन चेतना की सहमति आवश्यक है ।

0 समकालीन चेतना से सम्बन्धित सभी विवाद भोपाल न्यायालय के अधीन होगा ।

0 सर्वाधिकार सुरक्षित

0 सम्पादक/सम्पादक मण्डल अवैतनिक है।

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सम्पादकीय

यह समकालीन चेतना का प्रवेशांक है । आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना उचित होगा कि इस पत्रिका का नाम समकालीन चेतना क्यों रखा गया है । समकालीन को परिभाषित किया जाना आज के समय में बहुत जरूरी हो गया है ।
समकालीन वो ही है,जो अपने समय और समाज की छिपी गतिविधियों को पकड़ सकें और जिसे आज के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जा सकें । इससे पृथक कोई परिभाषा प्रस्तुत करना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । चेतना शब्द पर भी आंशिक रूप से विचार किया जाना चाहिए । चेतना सदैव वर्तमान समय में अवस्थित रहती है । तत्कालीन चेतना का अवसान नहीं होता किन्तु वर्तमान चेतना सदैव अन्तर्मन की लय को पे्ररित करती है । यही पे्ररणा सृजन के लिए आवश्यक रूप से महसूस की जाती है । यह पृथक विचार है कि यह किस तरह की चेतना होनी चाहिए । चेतना तत्व वृहत् तत्व है । इसे मनोवैज्ञानिक स्तर पर कई तरह से परिभाषित किया जा सकता है किन्तु हमारा उद्देश्य साहित्यिक चेतना से है । सद् का हित होना चाहिए अथवा सत्य को उद्घाटित किया जाना होगा । साहित्य में सत्य,शिव रूप में उद्भूत होता है जो शिवम् में परिवर्तित हो जाता है । यह चेतना आत्मपरक भी होती है किन्तु जब साहित्य की बात आती है तो सम्पूर्ण मानवीय संवेदना और सार्वभौमिक संवेदना प्रकट होने लगती है । इसी तत्व को हम साहित्य के रूप में निरूपित करना उचित समझते है । साहित्यिक चेतना जब तक अन्तर्मन में लयात्मक रूप से प्रगट नहीं होगी,साहित्य का सृजन नहीं हो सकता । यह चेतना चाहे जिस भी रूप में उदित हो,लेकिन आवश्यक है । साहित्यिक चेतना के बिना न तो सृजन सम्भव है और न अभिव्यक्ति । इसे यों भी कहा जा सकता है कि समकालीन चेतना के बिना समकालीन विचारधारा को बौद्धिक अथवा संवेदनात्मकस्तर पर प्रतिफलित नहीं किया जा सकता । बुद्धि और संवेदना हालांकि पृथक-पृथक तत्व है किन्तु एक साहित्य सृजक के लिए दोनों तत्वों को होना अनिवार्य है । बुद्धि इसीलिए भी आवश्यक है कि इसका सम्बन्ध स्मृति से है । विचारधारा और जीवन अनुभव स्मृति पर आधारित हो सकते है । जब तक बुद्धि और स्मृति का संगम नहीं होता,तब तक श्रेष्ठ सृजन भी सम्भव नहीं है । केवल संवेदना से काम नहीं चलता । यदि हम संवेदना को ही मात्र एक बिन्दु माल ले तो हम बहक भी सकते है अर्थात् अपने उद्देश्य से भटक सकते हैं । इसलिए बुद्धि और स्मृति का होना नितान्त आवश्यक है । इस तरह बुद्धि,स्मृति और संवेदना के मिले-जुले तत्व साहित्य सृजन के लिए आवश्यक माने जाते है । सम्पादकीय में हम साहित्य केे इन तत्वों पर स्थानाभाव के कारण विवेचना करना उचित नहीं समझते किन्तु यह आवश्यक है कि बुद्धि का सम्बन्ध प्रतिभा से है । स्मृति का सम्बन्ध जीवन अनुभव ,अध्ययन-मनन-चिन्तन से है और संवेदना का सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव जाति के सुख-दु:ख से है । इन्हीं तत्वों का समावेश जब रचनाकार सृजन में करता है तो वह वास्तव में सद् साहित्य का अध्येता कहलाता है । वो ही सृजन श्रेष्ठ है,जो इन तत्वों को लेकर किया जाता है ।
कहा गया है कि केवल बुद्धि और स्मृति से ही सृजन नहीं होता बल्कि साथ में संवेदना का होना भी जरूरी है । अथवा केवल संवेदना से ही सृजन नहीं होता,संवेदना को नियन्त्रित करने के लिए बुद्धि और स्मृति का होना आवश्यक है ताकि उन जीवन अनुभवों को यथास्थिति में विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया जा सकें । साहित्य का उद्देश्य तब ही पूर्ण हो सकता है ।
वर्तमान समय में लघु पत्रिकाओं की भीड़ में एक और पत्रिका का आना सुखद तो है ही किन्तु कठिन भी है । पत्रिकाओं में होड़ सी मची है । लगभग बीस हज़ार पत्रिकाओं के बीच में किसी नवीन पत्रिका को स्थान बनाना आसान नहीं है किन्तु यदि लगन और मेहनत को ईमानदारी के साथ प्रस्तुत किया जाय तो परिणाम सुखद हो सकता हैं । पत्रिकाओं को नियमित रूप से चलाने के लिए जितनी मेहनत की आवश्यकता होती है,उतनी ही आर्थिक दृढ़ता की आवश्यकता है । धन के बिना कोई पत्रिका अधिक समय तक चल नहीं सकती । दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ धन भी जरूरी है । देखते है,हम कब तक समकालीन चेतना को चला पाते हैं ।
श्रेष्ठ पत्रिकाओं की प्रतियोगिता में सामान्यस्तर की पत्रिकाएं टिक नहीं पाती । इसका कारण श्रेष्ठता तो है कि साथ ही निरपेक्षता भी जरूरी है । निरपेक्षता से हमारा तात्पर्य है बिना लाग-लगाव के तटस्थता बनाए रखना क्योंकि निरपेक्षता तब ही काम आती है जब हम खेमेबाजी से ऊपर उठ जाते है । खेमे का तात्पर्य है एक ही तरह के विचारधारा के लोगों का संगठन । यह आवश्ययक भी है किन्तु इसका तात्पर्य यह नही ंहोना चाहिए कि ख्ेामे के बाहर के व्यक्ति के विचारों को सिरे से खारिज किया जाय । खारिज होना होता भी है,क्योंकि विचारधारा समान नहीं होती । आज सारे सम्पादक खेमेबाजी में उलझे हुए है। कहना न होगा कि अपने खेमे में शामिल रचनाकार की रचना को श्रेष्ठ माना जाता है । ठीक इसके विपरीत खेमे से पृथक रचनाकार को रचनाकार माना ही नहीं जाता । खेमेबाजी में खेमे के प्रत्येक सदस्य की विचारधारा समान मानी जाती है और उसे ही प्राथमिकता दी है । पत्रिकाओं की भीड़ का कारण भी यही हो सकता है कि जब कोई रचनाकार खेमों से वंचित रहता है तो वह अपनी स्वयं की एक पत्रिका प्रारंभ कर अपनी श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने की कोशिश करता है । भले ही उसे आत्म सन्तुष्टि मिल जाए किन्तु उसे स्थान तब तक नहीं मिलता जब तक कि दूसरे खेमे उसकी विचारधारा को स्वीकार नहीं कर लेते । मेरा तात्पर्य किसी खेमे का तिरस्कार करना नहीं है किन्तु यह आज के समय की मांग है और इस पर समग्ररूप से विचार किया जाना आवश्यक है । तब ही हम साहित्य को बचा पाएंगे अन्यथा श्रेष्ठ साहित्य को कचरा और कचरे साहित्य को श्रेष्ठ निरूपित करने में लगे रहेेंंगे । इससे न तो साहित्य को लाभ होगा और न ही हम समाज या देश को कुछ दे पाएंगे । बावजूद यह तथ्य अपनी जगह स्थापित है कि चाहे लाख खेमे हो यदि पाठक समुदाय किसी रचनाकार की विचारधारा को स्वीकार करता है तो उस रचनाकार की रचना कालजयी हो जाती है । यह सत्य है कि सफलता के लिए खेमा होना आवश्यक है किन्तु जनमानस या पाठक की विचारधारा को खेमे नहीं किन्तु रचनाकार स्वयं ही उव्दलित कर अपने विचारो ंसे सहमत होने के लिए पे्ररित करता है और यही रचनाकार की सफलता है । जनमानस या पाठक का न तो किसी खेमे से कोई लेना देना होता है और न ही किसी आलोचक से । आलोचना और आलोचक पर हम अगले अंक में विचार करेंगे । तो आइए,हम संकल्प लें कि खेमों को तिलांजली दे साहित्य की सच्ची सेवा करने में संलग्न हो जाए ।

साहित्यिक खेमे की बात को ध्यान में रखते हुए इस ओर भी दृिष्ठ जाती है कि समाज में हो रहे वैचारिक विघटन या मूल्यों के हनन पर भी ध्यान दिया जाना होगा । आपसी रिश्तों और मित्रों के बीच वैमनस्य उत्पन्न न हो इसके लिए भी विश्वसनीयता बरकरार रखने के लिए मूल्यों का विघटन न हो पाए । होता यह है कि निकट रिश्तेदारों और मित्रों के बीच अनैतिक रिश्तों को लेकर कटुता उत्पन्न होती है । क्यों होती है र्षोर्षो क्योंकि रिश्तेदार या मित्र स्वयं ही ऐसा कार्य करते है जिससे रिश्तो और मित्रता के बीच दारारें पैदा होती है । इसका कारण चारित्रिक हनन या मानवीय मूल्यों का हनन है । मैं आशा करता हूं कि रिश्तेदार और मित्रगण भी ऐसा चरित्र बनाए रखेंगे,जिससे रिश्तें और मित्रता के बीच विश्वासघात की स्थिति उत्पन्न न हो। ----कृष्णशंकर
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क्हानी

एग्रीमेंट
--चन्द्रभान राही

कौशल्या अपने पति को पास की बैंच पर बिठाकर डॉक्टर के कमरे के पास गई और वहा खड़े चपरासी से पूछा- ´´क्यों भैया, शर्मा साहब कब लौटेंगे ´´
´´माताजी, शर्मा साहब का ट्रांसफर दूसरे अस्पताल में हो गया है, आज उनकी जगह पर नए डॉक्टर राजीव मित्तल आ रहे हैं।´´
´´अच्छा, कब आएंगे ´
´´बस, आते ही होंगे।´´
कौशल्या के पति को शादी के कुछ दिनों बाद से लकवा मार गया था, तब से वह इसी अस्पताल में इलाज़ करा रही है। आज उसकी हालत काफी अच्छी है। कौशल्या को कोई सन्तान न थी। उसके पति की उम्र लगभग 60 वर्ष की होगी। कौशल्या के भी चेहरे पर उम्र की रेखाएं उभर आई थीं। बाल सफेद हो गए थे।
वहां रखीं बैंचों पर मरीज़ आकर बैठते जा रहे थे। भीड़ बढ़ती जा रही थी। चपरासी ने टोकन बांटना शुरु कर दिया। कौशल्या का दूसरा नम्बरआया। तभी वहां उपस्थित मरीज़ के बीच हलचल हुई, किसी ने कहा- ´´अरे, डॉ. साहब आ गए।´´
मरीज़ सतर्क हो गए। कुछ मरीज़ों के चेहरों पर उम्मीद की रोशनी नज़र आने लगी। चपरासी ने फौरन डॉक्टर साहब की टेबल-कुर्सी को पोंछ डाला।
एक 25-26 वर्ष का आकर्षक युवक अपने गले में आला लटकाए एक निश्चित गति से कमरे की तरफ चला आ रहा था। लोग उसको झुक-झुककर सलाम कर रहे थे। कमरे के पास आते ही चपरासी ने सलाम ठोंका और दरवाज़ा खोल दिया। डॉ. राजीव मित्तल अपने कमरे में चले गए।
अभी एक मरीज़़ को देखा था। दूसरे नम्बर पर कौशल्या को बुलाया गया। कौशल्या ने अपने पति को पकड़े धीरे-धीरे कमरे में प्रवेश किया। डॉ. ने उनको पास की बैंच पर बैठने को कहा, फिर उनके पति का चेकअप किया और कौशल्या से पूछा-´´इनको कब से ये बीमारी है ´
´´डॉ. साहब, 30-40 साल हो गए।´´
´´अब कैसी हालत है ´´
अभी डॉ. मित्तल कुछ और पूछते कि एक 50-60 वर्ष का व्यक्ति, अपने हाथ में ब्रीफकेस लिए कमरे में आया। उसने अपने शरीर को इस तरह का बना रखा था कि वह ज़्यादा उम्र का लग ही नहीं रहा था। डॉ. मित्तल उस व्यक्ति को देखते ही उठे- ´´अरे पापा आप !´´
´´हां। मैंनेे सोचा चलो तुम्हारे काम का पहला दिन देखें, कैसे गुजर रहा है।´´
उस आदमी को देखकर कौशल्या के चेहरे पर कई भाव उभर आए। उसने अपने आंचल से मुंह को छुपा लिया। वह व्यक्ति कुछ देर बाद डॉ. मित्तल से मिलकर चला गया। उसके जाने के बाद कौशल्या ने पूछा।
´´डॉ. साहब, एक बात पूछूं ´
´´हां-हां, बोलो।´´
´´अभी जो सज्जन आए थे वे आर.के. मित्तल साहब हैं क्या र्षोर्षो´´
´´हां- ये मेरे पापा हैं। मैंनेे आज से अपना कैरियर शुरु किया है तो पापा मुझे देखने आए थे। पापा मुझे बहुत चाहते हैं।´´
´´और आपकी माता जी
´´वे घर पर हैं। वे भी मुझे बहुत चाहती है। लेकिन आप पापा को कैसे जानती है´´
´´एक मोड़ पर जान-पहचान हो गई थी। अच्छा, अब हमें कब आना है ´´
´´हां, ये जो दवाइयां हैं, एक माह की है। एक माह के बाद फिर मुझे दिखाने आ जाना।´´
कौशल्या की आंख भर आई थी। कमरे से बाहर निकलते समय आंसू छलक उठे थे।
शाम होते ही जिन्दगियां अपने-अपने रंगों में रंगने लग जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की जीने के अपने-अपने तरीके होते हैं। कौशल्या की अपनी कोई सन्तान न थी कारण कि उनके पति को लकवा मार जाने के कारण वो शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर थे। वो पहले शासकीय स्कूल में सेवारत थे लेकिन उनकी बीमारी के कारण शासन ने अब उनके स्थान पर कौशल्या को सर्विस दे दी थी।
आज कौशल्या की आंखों से नीन्द कोसों दूर थी। उसकी आंखें नम हो जा रही थीं। आज वो सोच रही थी कि उसने अपना आंगन सूना करके दूसरे का आंगन सजाया है। कभी-कभी उसके द्वारा किए गए एग्रीमेंट पर स्वयं को पछतावा होता था। काश कि मैंने ऐसा एग्रीमेंट न किया होता। कौशल्या पलंग पर करवटें बदल रही थी। सहसा वह उठी और एक सन्दूक से एक कागज निकालकर पलंग पर बैठे-बैठे देख रही थी। उसकी आंखों के सामने 30 वर्ष के पूर्व की घटना की याद ताजा हो आई।
कौशल्या की शादी को 2 या तीन वर्ष पूर्ण हुए थे। रामकुमार स्कूल से पढ़ाने के बाद शाम को जब घर आते थे तो एक गज़रा वह अपने साथ अवश्य लाते थे। उनको मालूम था कि कौशल्या को गज़रा पसन्द है। कौशल्या को यह मालूम रहता था कि रामकुमार शाम को मेरे लिए गज़रा लाएंगे। इसलिए वो अक्सर शाम को तैयार रहती थी और रामकुमार के द्वारा लाए गज़रे को वह अपने बालों में लगाते ही अति आकर्षक, मनमोहक लगने लगती थी।
ठण्ड का समय था। एक दिन प्रात: ही रामकुमार प्रतिदिन की भान्ति टहलने निकले। वापस आने पर ठण्ड लगी और वो बिस्तर पर लेट गए। उनका उस दिन का बिस्तर पर लेटना था कि वो आज तक न उठ पाए। उसी दिन उनको अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉ. ने लकवा लग जाने की बात कही।
रामकुमार को लकवे ने इतना जकड़ लिया कि वे बिस्तर से उठने में असमर्थ हो गए। उनके इलाज़ के लिए पैसों की कमी आ गई। भाई, रिश्तेदार, मित्र आदि लोगों ने जितनी मद्द करनी थी, की, लेकिन व्यक्ति पर जब मुसीबत आती है तो चारो ओर के रास्ते स्वत: ही बन्द हो जाते हैं। कौशल्या चूंकि पढ़ी-लिखी थी, इसलिए रामकुमार की जगह उसे शासकीय स्कूल में नौकरी मिल गई। लेकिन उसका सारा पैरा रामकुमार के इलाज़ में लग जाता था।
एक बार पैसों की कमी के कारण रामकुमार की दवा समय पर न आई, जिसके कारण रामकुमार की बीमारी बढ़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। कौशल्या अस्पताल के बैंच पर बैठी रो रही थी। अपने भाग्य को कोस रही थी। वह मन-ही-मन जाने कैसे-कैसे निर्णय लेने लगी थी। एक युवक काफी देर से कौशल्या को देखे जा रहा था। हालांकि कौशल्या ने भी एक-दो नज़र उस युवक को देखा था। वो व्यक्ति धीरे-धीरे कौशल्या के पास उसकी बैंच पर आकर बैठ गया और कहा - ´´देखिए, मेरा नाम आर.के. मित्तल है। मैं काफी देर से आपको देख रहा हूं कि आप रोती जा रही है। क्या में आपकी परेशानी को सुन सकता हूं´
कौशल्या ने मन-ही-मन सोचा, शायद ये मानवता के नाते पूछ रहा हो। क्या आज के इस युग में भी मानव के मन में मानवता बाकी है खैर, जब पूछ ही रहा है तो बताने में भी कुछ नुकसान नहीं है। कौशल्या ने कहा - ´´मेरे पति को लकवा मार गया है और मेरे पास उनके इलाज़ ़ के लिए पैसा नहीं है। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मैं क्या करूं।´´
´´कितने पैसे की आवश्यकता होगी ´
´´जी !´´ कौशल्या चौंकी।
`´देखिए, आप मुझे गलत मत समझना। मैं अपने बारे में आपको बताता हूं, उसके बाद यदि आप चाहें तो मैं आपकी मद्द करने को तैयार हूंं। आप जितना पैसा चाहेंगी, मैं आपको उतना पैसा दे दूंगा।´
कौशल्या के मन में नाना प्रकार के ख़्याल आने लगे। वो सोचने लगी कि आखिर ये इतना मेहरबान क्यों है र्षोर्षो फिर उसको अपने पति के इलाज़ के लिए पैसों की आवश्यकता थी। उसने सोचा कि कोई गलत काम करने से बेहतर है कि इस आदमी की बात को सुना जाए।
कौशल्या को ख़ामोश देखकर मित्तल ने कहा - ´´देखिए, आप पहले मेरी पूरी बात सुनें। उसके बाद यदि आपको अच्छा लगे तो मेरी बात मानना वर्मा मत मानना। मुझे कोई एतराज नहीं।´´
तभी अस्पताल में चाय वाला आया। आर.के. मित्तल ने दो चाय की प्याली लीं। दोनों चाय पीने लगे। तभी धीरे से कौशल्या ने कहा । `´कहिए, क्या कहना चाहते हैं आप।´´
´`यहीं कहूं या आपके घर........
`´ठीक है। कल सुबह आप मेरे घर आ जाइए। वहीं पर बात करेंगे।´`
कौशल्या ने एक पर्चे पर अपने घर का पता दे दिया। मि. मित्तल के जाने के बाद कौशल्या सोचने लगी कि आखिर कौन-सी बात वो कहने वाला है जो मेरे मानने पर कहेगा। वर्ना मजबूर स्त्रियों का समाज सिवा फायदा उठाने के सहयोग नहीं करता है। शायद ये मुझसे कोई गैर-कानूनी काम तो नहीं कराने वाला है। कौशल्या की रात उन्हीं उलझनों में उलझ के रह गई।
अभी कौशल्या ने अपने लिए सुबह का नाश्ता तैयार किया था कि मित्तल ने उसका दरवाज़ा खटखटाया। कौशल्या ने उन्हें अन्दर आने के लिए कहां कमरा ज़्यादा सजा-संवरा न था लेकिन फिर भी ठीक था। मित्तल पलंग पर बैठ गया। कौशल्या ने चाय-नाश्ता लाकर दिया। उसके बाद कौशल्या सामने रखी कुर्सी पर बैठ गई। और बोली - ´´जी कहिए।´´
´´देखिए कौशल्या जी........।´´
´´आपको मेरा नाम कैसे मालूम
´´मैंने डॉ. से आपके बारे में सब-कुछ मालूम कर लिया है। मैं बॉम्बे में एक व्यापारी हूं । मेरे परिवार में मेरी वृद्ध माताजी हैं। मेरी पत्नी और मैं। हमारी शादी को 7 वर्ष हो गए लेकिन हमारी कोई सन्तान नहीं है। मेरी माताजी की इच्छा है कि वो अपने पोते का मुंह देखे। उनके पास काफी जायदाद हैं जिसे वो अपने पोते के नाम लिखना चाहती हैं। वर्ना वो अपनी जायदाद अनाथ आश्रम को दे देंगी और डॉक्टर ने कहा है कि मेरी पत्नी कभी मां नहीं बन सकती। मैं दूसरी शादी इसलिए नहीं कर सकता कि दो नॉव पर सवार व्यक्ति कभी पार नहीं लगा है। मेरी पत्नी को कोई एतराज नहीं यदि मैं किसी बच्चे को अपना लूं तो।´´
´´तो आप कोई बच्चा गोद क्यों नहीं ले लेते ´´ कौशल्या ने धीरे से कहां।
´´ मैं यह जानता हूं कि मैं किसी का बच्चा भी गोद ले सकता हूं लेकिन गोद लिया बच्चा फिर भी पराया ही रहेगा और पराए बच्चे से वंश नहीं चल पाता। वंश चलाने के लिए पितृ-गुण विद्यमान बच्चा ही आवश्यक है। जिसे आप चाहें तो पूरा कर सकती हैं।´´
´´वह कैसे ´´ कौशल्या ने पूछा।
´´वह ऐसे कि आप मेरे बच्चे के पैदा होने तक अपनी बच्चेदानी को मुझे किराए पर दे दीजिए। इस पर आने वाला सारा खर्च मैं उठाऊंगा। आपकी डिलेवरी से लेकर आपके परिवार की आवश्यकता तक को पूरा करूंगा और आपको किराए स्वरूप 50 हजार रुपए एडवांस दूंगा। साथ ही आपके पति का इलाज़ ़ अच्छे से अच्छे अस्पताल में कराऊंगा।´´
कौशल्या के चेहरे पर कई भाव उभरकर आए। एक बार मन हुआ कि उससे कमरे से बाहर निकल जाने को कहें। मन करता था कि उसे एक तमाचा मार दे, लेकिन कौशल्या ने कुछ न किया, सिर्फ शान्त बैठी रही। उसको मौन देखकर मित्तल ने कहा- ´´देखिए, कौशल्या जी! आप यदि मेरी बात मानें तो अपने पति से एक बार पूछ लें। उसके बाद मुझे जवाब दें। मैं बस आपकी बच्चेदानी को तब तक किराए पर लेना चाहता हूं जब तक कि मुझे मेरा बच्चा नहीं मिल जाता। उसके बाद आप स्वतन्त्र हो जाएंगी। आप चाहें तो मैं एग्रीमेंट करने को तैयार हूं । अच्छा, मैं चलता हूं । कल पुन: आऊंगा। आप सोच-समझकर जवाब देना। 50 हजार रुपए एडवांस जब चाहेंगे तब दे दूंगा।´´
आर.के. मित्तल चला गया। कौशल्या के सामने छोड़ गया अपना प्रस्ताव ऐसा प्रस्ताव जिसको अपनाती है तो बदनामी तथा कलंक माथे पर लगता है और नहीं मानती है तो माथे की बिन्दिया मिटने का डर रहता है। कौशल्या ऐसे भंवर में फंस गई कि वो आगे जाए तो मरना, पीछे जाए तो मरना।
कौशल्या दिन-भर अस्पताल में रामकुमार के पास रही। रामकुमार की हालत गम्भीर होती जा रही थी। डॉक्टरों का कहना था कि शीघ्र ही इनका सही इलाज़ न किया गया तो बीमारी जोर पकड़ लेगी। डॉक्टरों ने कौशल्या को बॉम्बे जाने की सलाह दी। कौशल्या ने रामकुमार पर आने वाले खर्च के बारे में एक डॉक्टर से पूछा था। उसने लगभग 20-30 हजार रुपए खर्च बताया था।
शाम रात में बदल चुकी थी। चान्द न जाने क्यों समय से पूर्व ही आसमान पर आ गया था। तारे भी एक-एक करके आसमान पर निकल रहे थे। लेकिन कौशल्या की आंखों के आगे अंधेरा छा गया था। उसको अपने आगे अन्तहीन गर्त नज़र आ रहा था, जिसमें दिल दहलाने वाला अंधेरा था। उसको ऐसा महसूस हो रहा था कि वह उस गर्त में डूबी चली जा रही है और उसकी सांसे उसका साथ छोड़ रही है। कौशल्या किसी छोटे बच्चे की भान्ति डरकर चौंक गई। उसने अपने माथे को पकड़ लिया।
कौशल्या के सामने एक प्रश्न था कि वह हर हालत में अपने पति का इलाज़ कराए। पति जीवित रहेगा तो उसके हाथों में चूड़ी, माथे पर बिन्दिया बरकरार रहेगी। पति के बिना तो जीवन सूना। दूसरे, पति के इलाज़ में इतना खर्च हो चुका है कि कज़दारों की भीड़ महीने की पहली तारीख़ को घर के सामने रहती है। कौशल्या को इस समय पैसों की सख्त ज़रूरत थी। ऐसे समय पर मित्तल किसी फरिश्ते से कम नज़र न आ रहा था लेकिन मित्तल का प्रस्ताव ! कौशल्या यदि मित्तल के प्रस्ताव को मानती है तो समाज क्या कहेगा। समाज उसे कुलक्षणी- कुलटा.... जितने मुंह उतनी बातें। चूंकि पति बिस्तर से उठ नहीं पाता और पत्नी बच्चे की मां ! यह बात शायद कोई भी व्यक्ति पचा नहीं पाएगा।
कौशल्या ने एक निर्णयात्मक सांस खींची और उठकर किचन में चली गई। सुबह मित्तल ने दरवाज़ा खटखटाया। कौशल्या पहले से ही तैयार थी। शायद कौशल्या को मित्तल का इन्तज़ार था। चाय-नाश्ता के बाद मित्तल ने कहा -´´तो आपने क्या सोचा
कौशल्या कुछ गम्भीर स्थिति में नज़र आ रही थी।
`´जी! में तैयार हूं। लेकिन.....।´`
`´लेकिन। लेकिन क्या ´´ मित्तल ने उत्सुकता से पूछा था।
``मैं आपके बच्चे की मां बनूंगी, ऐसी स्थिति में समाज मुझे बदचलनी का लिबास तो नहीं पहनाएगा। समाज मुझे बदचलनी का लिबास न पहनाए और मेरे बच्चे को हमारी की औलाद न कहे इसके लिए मैं चाहती हूं कि हमारे बीच होने वाला एग्रीमेंट कोर्ट के माध्यम से हो, ताकि मेरे बच्चे को कानूनी अधिकार मिल सके और वो समाज में इज्ज़त से रह सके।´´
चूंकि मित्तल एक व्यापारी था, इसलिए वो हर पहलू को इच्छी तरह से तौल कर देखता था। कुछ देर तक मित्तल ने अपनी नज़रों के तराजू से कौशल्या को तौला, शायद कौशल्या की बात वजनदार निकली और मित्तल ने ´हां´ में स्वीकृति दे दी।
अगले दिन मित्तल अपने साथ वकील को लेकर कौशल्या के पास गया। वकील ने कौशल्या को एग्रीमेंट के पेपर बताए। उसमें एग्रीमेंट की निम्नानुसार शर्तें थीं-
यह कि मेरी कोख को एक बच्चे के होने तक मित्तल रु. 50,000/- में किराए पर लेते हैं, जिसे में स्वेच्छा से मंजूर करती हूं।
यह कि बच्चे के होने तक एवं पैदा होने के एक वर्ष तक आने वाला सारा खर्च मित्तल के द्वारा देय होगा और बच्चे को मां का दूध छोड़ते ही, कौशल्या के द्वारा बच्चा मित्तल को सौंप दिया जाएगा, जिस पर कौशल्या का कोई अधिकार न होगा और बच्चा मित्तल का पुत्र/पुत्री कहलाएंगा।
इसी तरह के और भी कई ठोस बिन्दुओं को वकील ने कौशल्या को पढ़कर सुनाया। जिस पर कौशल्या और मित्तल ने हस्ताक्षर किए।
अगले दिन वकील ने याचिका कोर्ट में लगाई। अदालत में इस तरह का ये पहला व अनोखा केस था कि कोई व्यक्ति बच्चेदानी को किराए पर ले रहा है और कोई औरत बच्चेदानी को किराए पर दे रही है।
अदालत में इस याचिका पर काफी बहस हुई और अखबारों में भी यह केस खूब उछला। अन्त में निर्णय यह हुआ कि जिस तरह वकील, रिक्शेवाला, मजदूर आदि लोग अपना अंग श्रम, दिमाग के बदले पैसा लेते हैं, उसी तरह यह औरत (कौशल्या) भी अपने एक अंग को कुछ दिनों के लिए किराए पर दे रही है।
कौशल्या और मित्तल के बीच हुए एग्रीमेंट को अदालत ने मंजूरी दे दी और कौशल्या मित्तल के बच्चे की मां बन गई।
मित्तल ने भी अपना वायदा निभाया। रामकुमार को बॉम्बे ले जाकर एक अच्छे से अस्पताल में इलाज़ शुरु करा दिया। रामकुमार की स्थिति में बदलाव आने लगा। रामकुमार धीरे-धीरे ठीक होने लगा। इधर कौशल्या ने मित्तल के बच्चे को पुत्र रूप में जन्म दिया।
कभी-कभी कुछ बातें ऐसे बांध बनकर सामने आती हैं जिन्हें तोड़ पाना तूफानों के बस में भी नहीं होता। कौशल्या और मित्तल के बीच हुए एग्रीमेंट के मुताबिक एक वर्ष बीत चुका था और बच्चे को मित्तल के हवाले करने का वक्त आ गया था।
आज कौशल्या को मित्तल किसी यमदूत से कम नज़र न आ रहा था। मित्तल एग्रीमेंट के मुताबिक अपने बच्चे को लेने आ गया था और कौशल्या अपनी कोख से जने बच्चे को किस तरह से मित्तल को दे, कुछ समझ में न आ रहा था।
रामकुमार की हालत में अब सन्तोषजनक सुधार हो चुका था। रामकुमार ने कौशल्या को समझाया - ´´मानव को अपनी जुबान की लाज रखनी चाहिए। इसलिए कभी भी किसी को जुबान देने से पहले ठण्डे दिल-दिमाग से सोच लेना चाहिए।´´
अन्तत: कौशल्या ने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर मित्तल को उसका बच्चा दे दिया।
आज अचानक जब डॉ. राजीव मित्तल के रूप में उसका अपना बेटा सामने आया तो कौशल्या का ममत्व जोर मारने लगा। लेकिन कौशल्या चाहकर भी राजीव को अपना बेटा नहीं कह सकती।
कौशल्या अब प्रतिमाह रामकुमार का चेकअप कराने अस्पताल में आती है और अपने बेटे को एक नज़र-भर देखकर जी को सन्तुष्ट कर लेती है।
आज अदालत द्वारा दिए गए एग्रीमेंट को लेकर कौशल्या पलंग पर बैठी देख रही थी। कौशल्या की मैंझे इस एग्रीमेंट रूपी बंधन ने ऐसा बांध बना रखा था जिसे तोड़ना सम्भव न था। लेकिन कौशल्या की आंखों का भ्रम दूर हो चुका था, उसकी आंखों से पछतावे के आंसू एग्रीमेंट के काग़ज पर गिरते जा रहे थे जिससे काग़ज पर लिखे अक्षर धुलते जा रहे थे।

चन्द्रभान ´´राही´´
´´भूमिका निवास´´ 136 शिडीZ पुरम कोलार रोड भोपाल,म.प्र. मोबाईल 09893318042

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``जुल्म अगर ज्यादा ही बढ़ गया हो
बढ़ा लेनी चाहिए हमें अपनी कीमतें
कोड़ा खाने,चीखने-चिल्लाने से होगा यही बेहतर
अधिक दाम लेकर चुप रहना ।´´

-- अज्ञात
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जन्म पर मण्डराता खतरा

--डा अनितासिंह चौहान
मो.9826714443.

हमारे देश में स्त्री की स्थिति बहुत ही विचित्र है । उसके साथ होता अत्याचार, अपराधों की खबरें समाचार पत्रों का, मीडिया का प्रमुख हिस्सा हुआ करती हैं, जिन्हें लोग कभी उत्सुकता से कभी अफसोसजनक अन्दाज में पढ़ते या देखते हैं। किन्तु यह एक भयानक किन्तु कड़वा सत्य है कि बलात्कार, दहेज हत्या या अन्य शारीरिक प्रताड़ना से मरने वाली स्त्रियों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा बालिकायें तो जन्म लेने के पूर्व ही मार दी जाती हैं। जबकि आज भी छोटी-छोटी बालिकाओं को देवी माना जाता है, कन्या पूजन किया जाता है, उन्हे शक्ति स्वरूपा मानकर नवदेवियों के रूप में उनकी आराधना की जाती है, बड़े बुजुगों द्वारा उनके पैर धुलाये जाते हैं।
हमारे इतिहास और पंरपराओं के चलते ज्ञातव्य है कि वेदिक व्यवस्था में विवाहिता और अविवाहिता दोनो ही स्त्रियों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें हर तरह के अधिकार प्राप्त होने के साथ सभी धार्मिक सामाजिक कार्यो के समान रूप से शामिल होने का अवसर प्राप्त रहते थे। ``ऋगवेद´´ गंरथ इसका उदाहरण है। जिसमें कहा गया है कि ``स्त्री हिं ब्रम्हा वभूवियां´´ अर्थात स्त्री को स्वंय ब्रम्हा का स्थान दिया गया है। कालान्तर में स्त्री हाशिये पर आती चली गई और पिछले कुछ दशकों से तो स्त्री पुरूष का घटता अनुपात चिन्ता का विषय होने के साथ स्त्री के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव को भी दृष्टिगोचर करता है। लड़की शिशु की संख्या में दिनो दिन गिरावट आ रही है इसमें सबसे ज्यादा भयावह स्थिति पंजाब , हरियाणा, दिल्ली जैसे बड़े विकसित राज्यों की है जो आर्थिक विकास और शिक्षा की दृष्टि से अग्रणी माने जाते हैं।
इन प्रदेशों में प्रति हजार पुरूषों पर लगभग 900 स्त्रियां ही हैं और यह अनुपात भी दिनों दिन घटता जा रहा है। बालिका शिशु की घटती संख्या का मूल कारण है- सदियों से चला आ रहा समाज का पंपरावादी और रूिढवादी दृष्टिकोण कि ``पुत्र के बिना स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती।´´ आज तथाकथित सभ्य तथा शिक्षित कहे और माने जाना वर्ग भले ही यह दावा करे कि उनकी नज़र में लड़की व लड़के में कोई अन्तर नही है, दोनो ही समान हैं। क्या फक्र पड़ता है कि उनकी सन्तान लड़की है या लड़का। लेकिन इन दावों के वावजूद तथा तमाम सरकारी तथा गैर सरकारी प्रयासों के वावजूद देश में बालिकाओं की स्थिति सोचनीय है। सरकार द्वारा इस स्थिति को गम्भीरता से लेते हुए कन्या शिशु की जनसंख्या में वृद्धि करने और उसे हर तरह की सुविधा प्रदान करने के प्रयास किये जा रहे हैं। जननी सुरक्षा योजना, लाड़ली लक्ष्मी योजना, आदि कई तरह के ऐसे कार्यक्रम या योजनायें हैं जो बालिका को सुरक्षा, शिक्षा प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं ।
आश्चर्य की बात तो यह है कि देश में गौ हत्या पर तो प्रतिबंध है और इस तरह का कोई भी मामला सामने आने पर कई क्षेत्रों में तो दंगे भी हो जाते हैं क्योंकि वह पूज्य मानी जाती है और कन्या मानो उसका महत्व एक जानवर से भी कम है जिसे उसके जन्म लेने के पूर्व ही मां की कोख में ही मार दिया जाता है। कन्या की घटती संख्या में सबसे बड़ा कारण है आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकें और सर्वप्रथम अल्टा साउण्ड मशीनें जिसका आविष्कार इस रूप में किया गया था कि मनुष्य के शरीर के भीतर झांंककर अन्दरूनी बातों की जांच कर उनका इलाज करना, किन्तु वही मशीन बालिका का काल बन गई है। अब प्रत्येक परिवार पुत्र कामना से लिंग परीक्षण करवाता है। परीक्षण की स्थिति पर ही यह निर्णय लिया जाता है कि उस भ्रूण का जीवित रहने का अवसर दिया जाये या उसके जीवन प्रारंभ होने से पूर्व ही उसकी हत्या कर दी जाये।
आज प्रत्येक शहर यहां तक कि छोटे-छोटे कस्बों में भी भ्रूण लिंग की पहचान करने वाले क्लीनिक खुले हुये है, उनकी बाढ़ सी आ गई है। सोनोग्राफी के नाम पर लिंग जांच करना या करवाना बहुत आसान हो गया है, जिससे बालिका का असत्तिव ही खतरे में पड़ गया है। जबकि सरकार द्वारा इस तरह की जांच पर कानूनी रोक है और लिंग जांच करवाना या करना अपराध की श्रेणी में आता है जिसमें जुर्माना या समाज का प्रावधान भी है। किन्तु जैसा कि माना जाता है और सत्य भी है कि कोई कानून बनता है तो उसके बचने के या उसे तोड़ने के तरीके भी हजार निकल आते हैं। हर डाक्टर के क्लीनिक पर एक तख्ती टंगी रहती है कि ``भ्रूण हत्या अपराध है´´ या यहां ``लिंग जांच´´ नहीं की जाती। जबकि असलियत तो यह है कि आज डाक्टर्स या क्लीनिकों को सबसे ज्यादा कमाई लिंग जांंच और भ्रूण हत्या से होती है और लिंग जांच का परिणाम चोरी छिपे ही परिवार वालों को सांकेतिक रूप से बताया जाता है कि ``सब राम की कृपा है या देवी लक्ष्मी आप पर सहाय हो´´ ये सांकेतिक वाक्य ही यह बात तय करते हैं कि उस राम को जन्म लेने का अवसर मिले या फिर देवी लक्ष्मी को सदा के लिये मृत्यु के मुख में भेज दिया जाये।
जबकि वराह पुराण, याज्ञवलक्य स्मृति, अग्नि पुराण आदि में स्त्री बाल हत्या का विरोध किया गया है। स्त्री बाल हत्या यानी कन्या भ्रूण हत्या करने या करवाने वाले को घोर अपराधी माना गया है और ऐसा माना गया है कि गायत्री मन्त्र जपने से भी इस पाप से मुक्ति नहीं पाई जा सकती। गायत्री पंचाग, भागवत पुराण आदि धर्म ग्रन्थों मे भी इसकी आलोचना की गई है। किन्तु आज पुत्र की कामना घरों में, लोगों में इतनी बलवती है कि लोग पुत्र ही चाहते हैं और पुत्र की कामना में चार-चार पुत्रियों को भी घर में लाइन लग जाती है और फिर माता-पिता की सारी खीज सारा क्रोध उभर कर लड़कियों पर आता है, उसे तरह-तरह के बंधनों में जकड़ दिया जाता है- लड़की हो, ढंग से रहो, ऐसे रहो, वेसे रहो इस तरह चलो यानी तमाम बन्दिशें जिनमें बंधकर बालिका घुट कर रह जाती है, उसका मासूम मन चीत्कार उठता है यानी या तो उसे दुनिया में आने ही नहीं दिया जाता और यदि किसी तरह वह दुनिया में आ भी गई तो उस पर तरह के बंधन लगाकर उसकी शारीरिक रचना के चलते दहेज, प्रेम, सेक्स आदि का हवाला देकर उसे घर की इज्जत का नाम देकर घर में ही बन्दी बनाकर रखना, किसी तरह का कलंक ना लग जाये यह सोचकर उसकी आजादी, पर प्रतिबंध लगाना। ये सब महिला के प्रति समाज व परिवारों की दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित करती है।
धर्मग्रन्थ में भी इस तरह की बातों का उल्लेख है और तब से लेकर वर्तमान तक की धारणा है कि जिस स्त्री ने बेटे को जन्म नहीं दिया वह अधूरी मानी जाती है या स्त्री की पूर्णता पुत्र जन्म में निहित है आदि। ससुराल में पर्दापण करने वाली हर नव विवाहिता को सर्वप्रथम आशीZवाद ``पुत्रवती हो´´ ही दिया जाता है ``पुत्रीवती हो´´ का आशीZवाद आज तक किसी भी स्त्री को प्राप्त नहीं हुआ है। इसी कारण पुत्र की कामना से ही लिंग जांच में यदि पुत्र है तो सारा परिवार खुशी से झूम उठेगा सास आगे बढ़कर गर्भवती की बलायें लेगी, उसका खास ख्याल रखा जावेगा ताकि बेटा सदस्य पैदा हो और यदि लड़की कोख में हो तो सर्वप्रथम तो उसे कोख में ही मारने की तैयारी कर ली जायेगी और यदि वह बच्ची भाग्यशाली है और मरने से बच भी गई तो उसके पैदा होने के पूर्व ही परिवार वाले मन ही मन हिसाब लगाने लगते हैं कि अब बच्ची की शादी के लिये दहेज की तैयारी में जुटा जाये। मात्र शादी की ही चिन्ता की जाती है, उस बच्ची की अच्छी परवरिश, उसके स्वास्थ्य का उसे अच्छी उचित शिक्षा प्रदान करने का ख्याल तक मन में नही आता मानो उसकी शादी ही उस बच्ची का उचित भविष्य है । ऐसे में उस बच्ची की गर्भवती मां के वारे में सोचने की किसी को आवश्यकता नहीं। जिसे इस बात से क्या अन्तर पड़ना है कि उसकी कोख में लड़का है या लड़कीर्षोर्षो क्या लड़का पैदा होने पर उसे कम दर्द या प्रसव पीड़ा कम सहन करनी पड़ेगी। लड़का हो या लड़की, उसके पैदा होने पर मां को प्रसव पीड़ा तो उतनी ही बराबर सहन करना होती है। लड़का मात्र की चाह रखने वाले माता-पिता सर्वप्रथम अपराधी हैं, क्योंकि अपनी इच्छा पूर्ति के लिये बालिका भ्रूण की हत्या करवा देते हैं। अकसर कन्या जन्म के प्रति नकारात्मक सोच की परिणति ही भ्रूण हत्या या लिंग जांच के रूप में होती है। बालिका की चाह न रखने वाले परिवार के दृष्टिकोण में -

- पुत्र से वंश चलता है, पुत्री से नहीं।
- पुत्री पराया धन है या पराई अमानत, उसे दूसरे के घर जाना है।
- पुत्र प्राप्ति के बिना स्वर्ग प्राप्त नहीं होता।
- पुत्र खानदान का कुलदीपक है।
- पुत्री से कभी भी घर की इज्जत जा सकती है।

उपरोक्त कुछ मान्यताओं और धारणााओं के चलते ही पुत्र के लिये चाह रखना सामान्य है, किन्तु आज समय बदल गया है, पुत्री भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर परिवार का नाम रोशन कर सकती है न कि परिवार की घर की इज्जत जाने का कारण बनेगी। कई परिवारों में पुत्री पुत्र से बढ़कर माता पिता की इज्जत का ख्याल रखती है।
एक निजी सर्वेक्षण के चलते के चलते एक परिणाम सामने आये जिनके समाज की मानसिकता का पता चलता है। सर्वे के अनुसार उच्च वर्ग के परिवारों में पहली सन्तान पु़त्र है तथा द्वितीय सन्तान पुत्री है, जबकि मध्यम वर्ग या निर्धन वर्ग में प्रथम सन्तान कन्या और फिर द्वितीय या तृतीय सन्तान पुत्र के रूप में है। स्पष्ट है कि उच्च वर्ग और निर्धन वर्ग की मानसिकता के चलते ही सर्वेक्षण के परिणाम आये हैं। दोनो वर्गों की सन्तान उत्पत्ति का कारण स्वाभाविक नैसगिक नहीं है, वरन आधुनिक सोच व तकनीक ही दृष्टिगत होती है। उच्च वर्ग लिंग जांच का महंगा और आधुनिक तरीका अपनाकर यह ज्ञात कर लेता है कि गर्भस्थ शिशु क्या हैर्षोर्षो लड़का या लड़कीर् फिर लड़की का पता चलते ही गर्भ में ही उसे समाप्त करने का निर्णय ले लिया जाता है। चिन्तकों का यह मानना है कि एक दिन ऐसा आ सकता है जब पृथ्वी पर कन्या नाम का जीव समाप्त होकर मात्र बालक ही बालक विद्यमान होंगें। तब सृष्टि कैसे आगे बढ़ेगी यह आज सोचने का विषय है। इस स्थिति से बचने के लिए और कन्या हत्या पर रोक लगाने के लिए गर्भाधान पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन रोक थाम अधिनियम 1994 पारित किया गया) अधिनियम पारित होने का उददेश्य यह है कि स्त्री यह जाने समझे कि उसके शरीर के अन्दर जो जीव पल रहा है या पलने वाला है उस पर सिर्फ और पूरा अधिकार स्त्री का ही है। इस अधिनियम के अनुसार राज्य सरकारों द्वारा सभी अल्ट्रा साउण्ड मशीनों का पंजीकरण होना चाहिए। इस अधिनियम का क्रियान्वयन और अनुश्रवण हेतु जिला तथा राज्य स्तर पर समुचित प्राधिकारियों की नियुक्ति तथा विशेषज्ञों का सलाहकार बोर्ड स्थापित हो। इस अधिनियम में वर्ष 2002 में संशोधन किया गया, इसे और प्रभावी बनाया गया और अब यह अधिनियम ``गर्भाधन पूर्व और प्रसव पूर्व निदान`` के नाम से जाना जाता है।
नवीनतम प्रावधान के अनुसार यदि स्त्री भ्रूण हत्या हेतु लिंग जांंच करने वाले डायग्नोस्टिक सेंटर के खिलाफ प्रमाण उपलब्ध हों तो उसे सेंटर की वैधता प्रतिबंधित की जा सकती है। साथ ही जुर्माना या सजा दोनो का प्रावधान रखा गया है। जुमानेZ की धन राशि एक लाख रूपये है। इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वालो का पंजीयन तथा वैधता निरस्त करने का उपबंध अनिनियम की धारा 23 (2) में विर्णत है। अधिनियम लागू करने का प्रथम उद्देश्य लिंग चयन की तकनीक और लिंग के आधार पर होने वाले गर्भपात पर तथा ऐसी ही अन्य गतिविधियों पर रोक लगाना है।
सन् 2004 में ``लिंग चयन और जन्म पूर्व कन्या भ्रूण हत्या` विषय पर अहमदाबाद में एक कार्यशाला आयोजित हुई जिसमें चर्चा उपरान्त यह जानकारी सामने आई कि ``गर्भाधान´´ पूर्व प्रसव पूर्व निदान´´ अधिनियम की धारा 5 (2) का उल्लंघन कर भ्रूण लिंग जांंच की जा रही है इस जांंच का परिणाम बनाने का तरीका बदल गया है। सांकेतिक रूप में अब यह बताया जाता है कि गर्भ में लड़का है या लड़की । यही नहीं लिंग जांंच करना अपराध की श्रेणी में आता है तो कई क्लीनिक या डायग्नोस्टिक सेंटर पर इस तरह का बोर्ड भी लगाया जाता है, जिसमें लिंग जांच करवाने वाले परिवार यह जान जायें कि इस सेंटर पर लिंग जांच होती है। जैसे-`दो लाख बचाने के लिये केवल दो हजार रूपए खर्च करें। `साइन बोर्ड की भाषा स्पष्ट रूप से चीख-चीख कर बता रही है कि लिंग जांच करायें बस दो हजार में और कन्या भ्रूण होने पर हत्या कोख में ही करवाकर अपने दहेज व शादी ब्याह पर होने वाला दो लाख का खर्च बचायें। स्पष्ट है कि पुत्री को परिवार पर बोझ माना जाता है जबकि पुत्र परिवार का कुल दीपक है।
जाहिर है कि तमाम सरकारी कानूनों अधिनियम के कड़ाई से लागू होने के बाद भी लिंग जांच तथा भ्रूण हत्या धड़ल्ले से की जा रही है, करवाई जा रही है, इस स्थिति को बदलने के लिए मात्र सरकार की तरफ देखना काफी नहीं है, क्योंकि सरकार कोई व्यक्ति नहीं। एक नियम लागू करने का अधिनियम बनाने का, लागू करने का मात्र जरिया है उसे मानना या अथवा पालन करना समाज का काम है। समाज के पूर्व खुद स्त्री को इस अधिनियम का पालन सुनिश्चित करना होगा। अधिनियम में निहित प्रावधानानुसार स्त्री के शरीर के भीतर और शरीर पर उसका सर्वाधिकार है और कोई भी उसके शरीर के साथ खिलवाड़ करने पर मजबूर नहीं कर सकता लेकिन आज स्वयं स्त्री कीे ही सदियों पुरानी अपनी मानसिकता और रूिढवादी सोच के चलते लिंग जांच के लिए तैयार रहती है। पुत्र की माता होने में समाज में व परिवार में उसका मान सम्मान बढ़ेगा, गौरव बढ़ेगा, ऐसी स्त्री मानसिकता स्वयं स्त्री की ही रहती है और इसी सोच के चलने पर वह लिंग जांच और फिर उसके बाद कन्या भू्रण हत्या के लिये तैयार हो जाती है र्षोर्षो क्यों र्षोर्षो एक स्त्री होकर अपनी ही कोख में आकार ले रही कन्या भ्रूण को जो आगे चलकर सम्पूर्ण स्त्री बनेगी, समाज व सन्तान की रचियेता बनेगी, खत्म करने के लिए किस तरह तैयार हो सकती है। साथ ही वह सास भी काफी हद तक जिम्मेदार है जो पोते की चाह में खानदान की वंश वृद्धि की चाह में अपनी बहू पर भावनात्मक आदेशात्मक दवाव डालती है कि पुत्र से ही उसका मान रहेगा घर में । पुत्र की माता कहलाने पर ही स्त्री का आदर सम्मान होगा, अच्छा खान-पान मिलेगा अन्यथा नहीं । ऐसा व्यवहार व तरीका अपनाकर वह सास, वह होने वाली गर्भवती मां यही बात चरितार्थ करती है - `स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है।` इसलिए अब स्त्री को स्वयं जागृत चेतन होना होगा और सर्वप्रथम गर्भवती को ही इसकी पहल करना होगी, क्योंकि कोख उसकी है, गर्भ में पल रहा भ्रूण उसका शरीर में समाहित है यदि वह विरोध करे या लिंग जांच के लिए तैयार ही न हो तो कोई उसे विवश कैसे कर सकता है।
आज की महिला इतनी तो शिक्षित होती है कि उसे उचित या अनुचित बातों का प्रारंभिक ज्ञान होेता है उसे यह अवश्यक ज्ञात होना चाहिये कि लिंग जांंच अपराध है तथा भ्रूण हत्या उससे भी बड़ा अपराध। पति या परिवारजनों द्वारा विवश किये जाने की स्थिति में वह स्वयं अपना निर्णय ले साथ ही आस पड़ोस का साथ लेकर या फिर समाज कल्याणकारी संस्थाओं के साथ जाकर अपना पक्ष सामने रखे स्वयंसेवी संस्थाओं तथा समाज संस्थाओं का भी यह नैतिक उत्तरदायित्व है कि वे ऐसी स्त्रियों का पक्ष सुनें, उनकी सहायता करें, हर सामाजिक मुददे पर अपनी आवाज बुलन्द करने वाली ये संस्थायें इस मुददे पर अपनी आवाज क्यों नहीं उठातीं हैं या वह उस पीड़ित स्त्री के साथ खड़ी नहीं होती हैं, यह सोच का विषय है, चिन्ता का विषय है। निश्चित ही इन समाजसेवियों को लिंग जांच या भ्रूण हत्या के मामले का पता लगने पर उस परिवार को जहां स्त्री विवश की जा रही है ऐसी जांंच के लिए, समझाईश देनी चाहिये कि स्त्री ही तो समाज की, परिवार की सृजनहार है, जब स्त्री ही न होगी तो सृष्टि आगे कैसी चलेगी। साथ ही उस परिवार को भी अपना दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है जहां कन्या को बोझ मानकर उसकी हत्या करवाकर इतिश्री कर ली जाती है। सबसे जरूरी है कि पुरूष अपनी मानसिकता बदलें, अपनी पित्न को पूरा सम्मान व सहयोग प्रदान करें, जिससे उस स्त्री का आत्मविश्वास जागृत हो, उनकी परम्परावादी सोच में परिवर्तन हो कि अब मात्र पुत्र जन्म से ही स्त्री का गौरव नहीं बढ़ेगा वरन पुत्री भी गौरव का कारण बन सकती है, सही शिक्षा और उचित संस्कार कन्या को भी पुत्र से ज्यादा गुणी व सफल बना सकते है। जाहिर है कि जब पुरूष मानसिकता में बदलाव दृष्टिगोचर होगा, वह अपनी पित्न की कोख में पल रहे शिशु की लिंग जांच कराने को ही तैयार नही होगा तो गर्भवती स्त्री भी आगे बढ़कर इस जांच का विरोध करने का साहस कर सकेगी। अन्यथा पति की ही आज्ञा इच्छा को सर्वोपरि मान स्त्री खुद को न चाहते हुये भी अस्पताल या क्लीनिक के दरवाजे पर लिंग जांच या भू्रण हत्या के लिये खड़ा कर देती है। आखिर पुरूष अपनी ही पुत्री अपने ही अंश को कैसे मारने या मरवाने के लिये पित्न को आदेशित कर सकता है। क्या यह खून नहीं है उस रिश्ते का जिसमें स्त्री का जन्म पति की इच्छा का मानने को तैयार रहती है। चाहे खुशी के या फिर अनचाहे ही। यह खून है उस अजन्मी बालिका का जो सम्भवत: आगे चलकर सही वातावरण पाकर उच्च शिक्षा में अपने गुणों का विकास कर एक और इन्दिरा गांधी बनकर सम्पूर्ण राजनीति में सिर उठाकर खड़ी होती और देश को प्रगति के रास्ते पर और तीव्र गति से चलाने का प्रयास करती या फिर एक और ``कल्पना चावला´´ बनती जो अन्तरिक्ष मेें जा देश का नाम रोशन करती, किरण बेदी बनकर न सिर्फ खुद सफल होती बल्कि अन्य स्त्रियों को उनकी पहचान ढूंढ़ने में मदद करती, समाज सुधार के कार्य में अग्रणी होती। कई मदर टेरेसायें, सुनीता विलियम्स , सानिया मिर्जा, लता मंगेशकर के रूप में भविष्य पाने वाली इन अजन्मी बालिकाओं का भविष्य स्वयं उनकी मां के हाथ में है जिसे अपने पति का सकारात्मक रूख चाहिये, साथ चाहिये ताकि वह इस घृणित जांच में और कार्य के प्रति स्पष्ट रूप से अपना विरोध दर्ज कर सके। जब तक स्त्री खुद निर्णय लेने में सक्षम नहीं होगी सरकारी कानून व प्रावधान उसकी सहायता करने में नाकाम रहेंगें। जननी होकर भी भविष्य में जननी बनने वाली बालिका की हत्या वह कैसे होने दे सकती है। पुत्र मोह की लालसा त्याग उसे उस बालिका को बचाना होगा। स्वाभिमानी व स्वावलंबी होकर, विरोध का रास्ता अपनाकर ही स्त्री बालिका को बचा सकती है। पुरूष का क्रम इस कार्य में दूसरे नंबर पर है क्योंकि सदियों से चली आ रही पुरूष सत्तात्मकता इस घृणित कार्य को रोकने में उतनी कारगर नहीं होगी जितनी स्त्री स्वयं।
जब तक स्त्री खुद अपने प्रति जवाबदेह नहीं होगी तब तक वह दूसरों के प्रति संवेदनशील कैसे हो सकती हर्षोर्षो सरकार कानून, प्रचार प्रसार बलिका जन्म के लिये बहुत कुछ कर रहे हे, परन्तु यह तभी कारगार होंगे सफल होंगें जब अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के विरोध में आवाज स्वयं स्त्री उठायेगी। तभी सरकार व समाज उनके समर्थन में खड़े होंगें और स्त्री पुरूष का घटता अनुपात व बालिकाओं की बढ़ती संख्या के सुखद परिणाम देश व समाज के समक्ष प्रत्यक्ष होगें।
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चाह नहीं मैं सुर बाला के,गहनों में गून्था जाऊं
चाह नहीं पे्रमी माला में,बिध प्यारी को ललचाऊं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर, हे हरि डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सिर पर, चढ़ भाग्य पर इठलाऊं
मुझे तोड़ लेना बनमाली,उस पथ पर में देना तुम फेंक
मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने,जिस पथ जावें वीर अनेक ।

--माखनलाल चतुर्वेदी

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उषा प्रारब्ध की कविताएं

निराला नगर की स्याही में झील

झीलों के इस शहर को सब यूं तो
कई-कई तरह से जानते हैं

यहॉ का इतिहास जितना शानदार है
वर्तमान भी उतना ही अनूठा है

कला-संस्कृति और साहित्य की त्रिवेणी यहॉ लोगों को
बरबस ही खींच लाया करती है,फिर

यहॉ का प्राकृतिक सौन्दर्य तो मानों सोने पर
सुहागे जैसा है, शहर में दाखिल होते ही मन

हरी -भरी पहाड़ियों संग झील के सौन्दर्यपाश में
बंध जाया करता है यूं लगता है जैसे यहॉ

सूरज नहीं झील उगा करती है
सॉझ नहीं झील ढला करती है

फिजाओं में यहॉ झील ही महकती-चहकती है
घरों में झील ही मुस्कुराती है कभी झील गलतियों पर

शहर से रुठ भी जाया करती है
झील ही तारती है झील ही मारती है

शहर के बाशिन्दे नहीं यहॉ दिन-रात जिन्दगी से
झील ही खट रही होती है

बरसों से यहॉ झील की तरह ही साहित्य भी
गाता-गुनगुनाता रहा है यहॉ फिलवक्त

निरालानगर साहित्यक गढ़ जो है
मिजाज यहॉ का इसीलिए

बाकी शहर से थोड़ा अलग है
यहॉ पेड़़ भी शायरी करते है

शाखों पर शब्द खिला करते हैं
पुलियाएं-सड़़कें कहानी कहती है

चॉद-तारे महफिल सजाते हैं यहॉं
घरों में बर्तन नहीं कविताएं खनकती है,

छन्द जुगलबन्दी करते हैं
तरह-तरह आलापो साहित्यिक रागों से निरालानगर

सराबोर रहता है यानी
निराला नगर अपने आप में
खासा एक महाकाव्य है
वक्त यहॉ पन्नों की तरह फड़फड़ाता है

मौसम ही नहीं यहॉ
साहित्य करवटें लेता है
यहॉ निराला नगर की स्याही में
झील सदैव अजर-अमर है।
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सुहागिनें युगों से

पेड़ को पूज रही
सूत लपेट रही मन्नते मांगते
उससे कोई अपनी अपनी
व्यथाएं सुना रही
पेड को नहीं पता कि सदियों से
आखिर उसमें विराजते भगवान कौन से
स्त्रियों के लिए पेड़ भगवान है
छुपा छुपी खेल रहे बच्चां के लिए
छुपने छुपाने की जगह और कितने सारे
पक्षियों का आसरा भी बसेरा भी है पेड़
सदियों से पेड़ किसी भगवान के लिए नहीं
पूजती सूत लपेटती स्त्रियों इतने इन नन्हे
छुपा छुपी खलते बच्चों
आसरा बनाते पक्षियों और
झूला झूलती बेटियों के लिए बांहे फैलाएं ये
पेड़ सदियों से इन सबके लिए ही धरती पर हरे है ।
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गीत
--मनोज जैन मधुर
मन लगा महसूसने

हम जड़ों से कट गए
नेह के बाताश की
हमने कलाई मोड़ दी
प्यार वाली छांव
हमने गांव में ही छोड़ दी
मन लगा महसूसने
हम दो धड़ों में बंट गए।
डोर रिश्तों की नए वातावरण
सी हो गइ्रZ थामने वाली जमीं
हमसे कहीं पर खो गई
भीड़ की खाताबही में
कर्ज से हम पट गए।
खोखले आदर्श के हमने
मुकुट पहने बेंचकर के
सभ्यता के कीमती गहने

कद भले चाहे बड़ें हों
पर वजन में घट गए।

पता :-सी.एस. -13, इन्दिरा कालोनी, बाग उमराव दूल्हा, भोपाल-462010
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कविता
झरना

- नरेन्द्र गौड़

जेठ की तपती धूप में
पिघलने लगा डामर
उस पर तीन लड़कियां
चली जा रही हंसती हुई ।

धूप,गर्मी और अपने पैर में
चप्पलों के न हाने से बेखबर
हंसी का झरना बह रहा
सड़क पर
और उसमें लड़कियों का तैरना लगातार ।
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कहानी

कुक्कू
-शिवप्रसाद मिश्रा``अमित्र´´

मूसलाधार बारिश हो रही थी । यदा-कदा बिजली भी आसमान में घनेरे बादलों को अपने प्रकाश व्दारा मार्ग दिखा रही थी । बिजली के सहयोग से उत्साहित होकर सम्भवत: मेघ आज भी पूरी मंजिल तय करना चाहते थे एवं मन में दबी व्यथा को जमीन पर ऊंढ़ेल देना चाहते थे ।
``निगोड़ी बारिश कब बन्द होगी र्षोर्षो´´ कुक्कू ने गर्दन को इधर-उधर हिलाकर बारिश के जोर का अन्दाजा लगाया था ।

बारिश का जोर बिल्कुल कम नहीं हुआ । काले-काले बादल घिरे हुए थे । बादलों के कारण अंधेरा भी काफी घना हो चुका था,जबकि समय मुश्किल से चार अथवा पांच का ही हरा होगा । कुक्कू पंख फैलाकर दोनों बच्चों को अच्छी तरह ढांकते हुए सामने वाली हवेली की ओर ईष्र्या भरी निगाहों से ताकती हुई खामौश बैठी रही । इसी बीच आंधी का झोंका आने से वह पेड़ चरमरा गया,जिस पेड़ की एक डाली पर बने घोंसने में कुक्कू अपने दोनों बच्चों को सम्भाल कर बैठी थी ।
``नास मिटे इस आंधी का भी । लगता है अपना घर उजाड़ देगी ।´´ कुक्कू कराह उठी ।
वास्तव में आंधी का वेग इतना अधिक था कि कुक्कू का धीरज भी जवाब देने लगा था । ऐसा लगता था कि मानो कब पेड़ का पेड़ धाराशाही हो जाये अथवा वह डाली टूट जाय जिस पर कुक्कू का प्यारा घोंसला बना है । तभी कुक्कू को कुछ आभास हुआ । उसने बांए तरफ का पंख कुछ और फैलाकर पानी की बौछार से भीगते हुए उस बच्चे को बचाने की कोशिश की जो ठण्ड के कारण कंपकंपा रहा था और इसी बीच कुक्कू नीचे की ओर गर्दन करते हुए पंख के नीचे छिपे हुए दूसरे बच्चे की ओर आकषिZत हो उठी । बच्चे ने आशंका व्यक्त करते हुए कुक्कू से जैसे पूछना चाहता था,-
``मम्मी हम लोग यूं ही कब तक भीगते रहेंगे र्षोर्षो´´
कुक्कू ने एक नज़र फिर से सामने वाली हवेली में डालने के बाद अपनी चोंच से बच्चे का सिर सहलाते हुए कुछ निराश होकर जवाब दिया था,-
``जब तक पानी बरसेगा ।´´
हालांकि कुक्कू समझती थी । बच्चे के प्रश्न का आशय कुछ और ही था । वह यह भी जानती थी कि बच्चे को उसके व्दारा दिया गया उत्तर केवल बहलाने जैसा था,किन्तु वह कर भी क्या सकती है। आखिर परिन्दा जो ठहरी ।
कुक्कू बच्चों की भावना समझती थी । वह समझती थी कि उसकी आत्मा के अनुसार ही बच्चों की आत्मा भी चाहती है कि अपने पास भी हवेली हो,जहां आंधी पानी का कोई भी जोर न चल सकें । परन्तु ऐसे सोचने एवं चाहने से भी क्या हो सकता है । उसने मन ही मन कुढ़ते हुए एक गहरी सांस लेकर आसमान की ओर देखा,शायद वह देखना चाहती थी कि बादल छट रहे है अथवा नहीं । कुक्कू को इतना अनुभव अवश्य हो चुका था कि संसार में इन्सानों के समझ ऐशो-आराम की जितनी सुविधाएं है वह हम परिन्दों के पास नहीं है । उसे ईश्वर से इस बात की शिकायत नहीं हुई कि उसके पास इन्सानों के समान भोग विलास की सामग्री क्यों नहीं है किन्तु शिकायत इस बात की थी कि क्या हम परिन्दों को चैन से जीवन यापन करने का भी कोई अधिकार नहीं है।
``हम परिन्दों को आखिर भगवान ने दिया क्या है ´
कुक्कू के दिमाग में बार-बार ऐसे कई विचार उमड़ रहे थे ।
``आराम शब्द भी तो इन्सानों के लिए ही है ।´´
कुक्कू ने फिर से गहरी सांस लेकर पंखों पर जमी बून्दों को फड़फड़ाकर झाड़ने के बाद पुन: बच्चों को ढंक लिया था । उसने बच्चों को जन्म दिया है अत: उसका बच्चों के प्रति ममत्व रखना,उसने प्यार करना स्वाभाविक था किन्तु प्यार के पीछे यह कदापि नहीं चाहती थी कि उनके बच्चे सामनेवाली हेवली के बच्चों की तरह खेल-खेल में अपना समय व्यतीत करें एवं घोंसलों की बजाय ऐसी हवेली में रहे जहां से प्रकृति को झांकने का एक झरोखा भी न हो ।

एकाएक न जाने कुक्कू के विचारों में कहां से परिवर्तन आ गया था । वह नहीं चाहती कि उसको तथा उसके बच्चों को इन्सानों की तरह सुख-सुविधाएं प्राप्त हो । अब कुक्कू को उन वैभवशाली,एयरकण्डीशन बंगलों की आवश्यकता नहीं थी,जिसमें रह कर वह उसे भगवान को भी विस्मृत हो जाए जिसने उसे पैदा किया है ।
``घोंसलें में रहकर हम प्रकृति का अनुभव करते हैं । जाड़ा,गरमी,बरसात का अनुभव कर कण-कण में भगवान का आभास तो करते ही है ।
कुक्कू ने अपने आप में सन्तोष जाग्रत करते हुए पुन:चोंच से बच्चों को प्यार से सहलाया ।
शायद इसी दृढ़ विश्वास के कारण कुक्कू हमेशा यही सोचा करती थी कि जब भगवान ने हमें पैदा किया है तो जिन्दा भी वही रखेगा । सबका सहारा देनेवाला बस वही एक ईश्वर है और यही कारण है कि कुक्कू ने अपने बच्चों को उनके पंख निकालने तक ही उन्हें पालना-पोसना उत्तम समझा । अब वह नहीं चाहती कि इन्हें आगे कुछ सहारा देकर कमजोर बनाया जाए । वह बच्चों को कर्मठ एवं दुनिया में जीने योग्य बनाने के लिए उन्हें अकेला प्रकृति की गोद में छोड़ देना चाहती थी जिससे वे स्वयं अपने आपमें समथ्र्य हो सके ।
अत: यही सब सोचकर कुक्कू को अपने बच्चों के प्रति अब कोई चिन्ता नहीं थी । कुक्कू का यह विचार भी शायद सही था कि इन्सान एवं परिन्दों में यही अन्तर है कि परिन्दे अपने बच्चों को नि:स्वार्थ पालते हैं जबकि इन्सान अपने बच्चों को इस उम्मीद पर पालते है कि वे आगे चलकर उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे ।
`` इसका मतलब यह हुआ कि एक बूढ़े इन्सान एवं हमारे इन पंख निकलते बच्चों में कोई अन्तर नहीं है ।´´
कुक्कू की निगाहों में इन्सानों के प्रति एक और करारे व्यंग्य की झलक थी ।
बारिश अब भी पूरे जोर पर थी । कुक्कू अपने जीवन में इसी तरह न जाने कितने वषो से आंधी-पानी सहन करती आई है और न जाने कितने वषो तक सहन करती रहेगी,ईश्वर जानें । कुक्कू तो केवल यह जानती है कि एकदिन तो सभी को संसार छोड़कर जाना ही है । फिर इस भगवान के संसार में ऊंचे-ऊंचे भवनों की ईष्र्या मे जिन्दगी का अपमान क्यों किया जाए । अपने साथ में न तो धन-दौलत जायेगी और न ही वे ऊंचे-ऊंचे भवन ही जायेंंगे ।
`स्वच्छन्द जीवन में कितनी मिठास है,शायद इन्सान भी नहीं समझते ।´´ कुक्कू ने इन्सानियत के झूठे बड़प्पन पर पुन: व्यंग्य किया । कुक्कू शायद बच्चों को समझाना चाहती थी कि हम प्रकृति के हैं,प्रकृति हमारी है । हम चाहे जहां घूम फिर सकते हैं,हमें कोई रोक-टोक नहीं है । और न ही हमारे लिए अतिक्रमण सम्बंधी कोई कानून ही है । कुक्कू ने इन्सान की बुद्धिमानी पर गहन अफसोस प्रकट किया ।
``अजीब लोग है जब तक जीवित है बंटवारे के लिए ही आपस में झगडते रहते हैं ।´´ धन-दौलत,जायदाद की बात तो है ही,आकाश,समुद्र और देश का भी बंटवारे इन्सानों ने ही किया है । इन्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि एक दिन हमारे शरीर को धूल में मिल जाना है और....।
और तभी अचानक भयानक घनगर्जन के साथ बिजली कौंध उठी थी । अकस्मात मेघ गर्जना के कारण बच्चे भयभीत होकर कसमसा से गये थे । कुक्कू ने बच्चों को तुरन्त अपने दोनों पंखों से ढंक कर उन्हें अपनी छाती से पूरी तरह सटा लिया था ।
अब बारिश का जोर कुछ कम पड़ने लगा था । किन्तु बिजली की चमक एवं बादलों की भयंकर गर्जना से सभी दिशाओं में रह-रहकर खलबली सी मच जाती थी । कुक्कू को इन्सान नाम से ही घ्रणा होती जा रही थी । बारिश का जोर कम होने गया था । तभी कुक्कू की नज़र दूर एक छोटी झोपड़ी पर पहुंची । कुक्कू को जैसे ईश्वर के दर्शन हो गए हो । उसकी निगाहों में कुछ धुंधलापन महसूस हो रहा था । अत: अपने एक पंजे से पलकों को मलने की कोशिश की एवं बाद में दाएं बांए कांधे में आंख रगड़कर धुंधलेपन को समाप्त कर लिया था । शायद पानी की बौझार से कुक्कू की आंखों में पानी घुस गया था । उसने देखा कि आसपास दो-तीन झोपड़ियां और बनी हुई थी । जो वास्तव में इन्सान की ही झोपड़ी थी । कुक्कू अचानक ही गम्भीर हो उठी । उसने सोचा अगर यह सचमुच ही इन्सान की झोपड़ियां है तो इस सामनेवाली हवेली के इन्सान और झोपड़ी के उन इन्सानों में क्या अन्तर हो सकता है कुक्कू की गम्भीरता बढ़ती जा रही थी कि किन्तु वह यह सोच पाने में असमर्थ थी कि आखिर भगवान ने दुनिया में एक ही जैसा इन्सान बनाया है तब यह इन्सानों में इतना अन्तर क्यों है .कुक्कू के हृदय में विचारों का अन्तव्र्दन्व्द उमड़ रहा था ।

`` इन झोपड़ी में पल रहे इन्सान जिनके पास लाज ढांकने को कपड़ा भी नहीं है,जिनके बच्चों का पूरा बचपन अभाव में बीत जाता है,उनकी जिन्दगी क्या परिन्दों की जिन्दगी के समान नहीं है ,जो टूटती झोपड़ी के खुली छत के झरोखे से प्रकृति से आंखमिचौली खेलते रहते हैं ।´´.कुक्कू को आज झोपड़ी के इन इन्सानों के प्रति अथाह सहानुभूति उमड़ आई थी । इसके ठीक विपरीत हवेली एंव हवेली के इन्सानों के प्रति उसे अचानक अत्यन्त नफरत उत्पन्न हो गई थी । कुक्कू को अपने प्यारे घोसले से अब कोई पे्रम नहीं रह गया था । वह हवेली के सामने एक पल भी रूकना नहीं चाहती थी । वह हवेली से दूर जाकर अपना नया घरौन्दा बसाना चाहती थी । कुक्कू हृदय में उस झोपड़ीवाले इन्सान के प्रति बेहद प्यार उमड़ रहा था । जिसका जीवन एक परिन्दे की तरह था । जो प्रकृति के आंगन में जन्मा था । जो अपने मेहनत के बल से रोज पेट भरने के अलावा किसी चीज की लालसा नहीं रखता था.....। ऐसे ही इन्सान के प्रति आज कुक्कू की श्रद्धा अत्यन्त तीव्र हो चुकी थी । क्योंकि ऐसा इन्सान कर्तव्यशील होता है,जिसकी हर सुबह कलरव से शुरू होती है एवं कतारों में परिन्दों की भान्ति रोजी-रोटी लिए अपने बच्चों का पेट भरने हेतु चारा बटोरने हेतु निकल पड़ते हैं तथा फिर से कतारों में गोधूली की बेला में अपने झोपड़ी में लौट आते हैं ।
कुक्कू भावना में पूर्ण रूप में बह चुकी थी । उससे अब एक-एक पल इस घोसले में बीताना कठिन लग रहा था। कुक्कू पंख फड़फड़ाकर झोपड़ी की ओर उड़ चली । उसके पीछे बच्चे भी साथ-साथ उड़ चले । कुक्कू बच्चों के साथ इन्सानी झोपड़ी की टूटी छत से प्रवेश करते हुए एक कोने में सिमटकर बैठ गई ।
उसने देखा कि झोपड़ी में एक मां अपने दो बच्चों को गोद में लेकर बैठी हुई है। भयंकर बारिश से मां तो पूर्ण रूप से भीग गई है किन्तु बच्चों को भीगने से नहीं बचा पा रही है। टूटी झोपड़ी से पानी प्रवेश कर झोपड़ी के अन्दर की तमामा वस्तुओं को तर कर चुका था । कुक्कू के सामने एक अत्यन्त मार्मिक दृश्य उपस्थित था । इन्सानी मां शीत से कांपते हुए भीगे बच्चों को आंचल से ढांकने का प्रयत्न कर रही थी । जब वह अपने आंचल को खींचकर बच्चों पर ढांकती तो खुद का तन उघड़ जाता और तन के उघड़ने से शीत लहर के कारण कांप सी जाती । वह तुरन्त आंचल से अपना तन ढांक लेती थी किन्तु बच्चों के अंग खुल जाते,जिससे बच्चे ठण्ड से उसकी गोद में सिकुडने लगते । बच्चों का शीत के कारण सिकुड़ जाना भी उस मां के लिए असहनीय हो जाता तो वह तुरन्त बच्चों को आंचल में ढांक लेती ।
बारबार का यह क्रम देखकर कुक्कू वेदना से कराह उठी,
``काश ! हमजात इन्सानों के भी पंख होते।´
और कुक्कू ने अपने दोनों बच्चों को पंखों को फैलाकर ढांक लिया । बच्चे पंखों के भीतर सिमट गए ।
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.विश्वास की कच्ची डोर
--संगीता साहबजी

हमारे आसपास एक ऐसी दुनिया है,जिसमें किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता । यह एक ऐसी दुनिया है,जहां विश्वास के पहाड़ ऊंचे से ऊंचे होते जा रहे हैं । अविश्वास की आड़ में आम आदमी को लूटा-खसोटा जा रहा है । विश्वास दिलाकर आम आदमी को खाई में झोंका जा रहा है । यह अविश्वास न केवल हमारे आसपास व्याप्त है बल्कि यह परिवारों,समाज और अनन्य रक्त सम्बन्धों में भी ज़हर की तरह फैला हुआ है । अपने आसपास व्याप्त अविश्वास हमें विवश करते हैं कि हम किसी पर विश्वास न करें और जहां कहीं अविश्वास की गंध आती हो,वहां से जिस किसी तरह स्वयं को बचाने की कोशिश करें । अविश्वास की खाई या यों कहें कि दीवार देखकर सामान्य व्यक्ति सहम जाता है,उसे हृदय और दिमाग में एक प्रकार का भय व्याप्त हो जाता है । यह भय चारों ओर फैला हुआ है,घर-परिवार,दफ्तरों और घर के बाहर भी । व्यापार जगत में अविश्वास का भय शूर्पणखा की तरह मुंह फैलाए खड़ा है । अविश्वास का खतरा सुरक्षा प्रदान नहीं करता,हालांकि हम सभी जानते हैं कि यह खतरा किसी तरह टलनेवाला नहीं है । यह जानकर भी हम कभी न कभी अविश्वास के शिकार हो जाते हैं । यह अविश्वास उस समय अधिक भयभीत करता है,जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से बिल्कुल अनजान होते हैं और अनजानी वस्तुओं एवं लोगों से डरे हुए होते हैं । घर से निकलते ही दुनिया जहान के तमाम अविश्वास की वस्तुएं हमें घेर लेती है और हम एक प्रकार के डर को मन में लिए सहमें-सहमें से सारा दिन गुजार दते हैं । शाम को हम तमाम अविश्वासों से बचकर घर लौटते हैं,तब मन का डर कहीं समाप्त होता है ।
यात्राओं में ज़हर-खुरानी का होना एक आम बात हो गया है । ऐसे कार्यों में व्यक्ति को विश्वास में लिया जाकर ही उसे लूट लिया जाता है । ज़हर-खुरानी के अपराधी व्यक्ति से हिलमिलकर पूरा विश्वास जीत लेते हैं और जब विश्वास अटूट हो जाता है,तब ये अपराधी व्यक्ति पर ज़हर-खुरानी का प्रयोग कर आसानी से लूट लेते हैं । ज़हर-खुरानी एक बहुत बड़ा अविश्वास है,यह एक ऐसा अविश्वास है,जिसमें ज़हर-खुरानी का प्रयोग बिना-खिलाऐ भी किया जाता है । सबसे अधिक ज़हर-खुरानी विश्वास में लेकर आपासी रिश्तों और मित्रों में किया जाता है । यह एक ऐसी ज़हर-खुरानी है,जिसे हम भावुकता में व्यक्ति से करवा लेते है । भावुकता में लेकर की गई ज़हर-खुरानी अविश्वास का एक जबरदस्त उदाहरण है । यात्राओं में व्यक्ति को विश्वास में लेकर ही ज़हर-खुरानी यानि नशीली वस्तु देकर बेहोश किया जाता है किन्तु आम जीवन में किसी होटल में बैठकर या घर में ही बैठकर शराब आदि के नशे में विश्वास में लिया जाकर विश्वासघात किया जाता है ।
रिश्तों में,मित्रों में,पे्रमी-पे्रमिकाओं में,सहकर्मियों,सहपाठियों और अत्यन्त विश्वासनीय व्यक्तियों में,जो एक दूसरे पर अटूट विश्वास करते है,व्यक्ति कहीं न कहीं शिकार हो जाता है। महिलाओं,लड़कियों के साथ हो रहे बलात्कार या अगवार करने की घटनाएं इसी श्रेणी में आती है । ठगी के शिकार लोग भी इसी श्रेणी में आते हैं । विश्वासनियता के पीछे सन्दिग्धता छिपी होती है,जो दिखाई नहीं देती किन्तु जब घटित हो जाता है,व्यक्ति ठगा सा रह जाता है । ऐसे प्रकरणो में आरोपी के विरूद्ध सबूत जुटाना कठिन हो जाता है और आरोपी साफ बच जाता है । बलाल्कार के मामले मे,जहां विश्वास लेकर पे्रमी-पे्रमिका,दोस्ती या अधिक विश्वसनीयता में हुआ बलात्कार पीड़ित महिला या लड़की चुप रह जाती है । इन आरोपियों को कोई सज़ा नहीं मिल पाती, वे साफ-साफ बच जाते हैं । एक छत के नीचे रहकर भी रिश्तों में अविश्वास की दीवार खड़ी रहती है और वे आपस में डरते दिखाई देते है । सन्दिग्ध रिश्तों या शंकालु रिश्तों में अविश्वास की दीवार दोनों पक्षों का जीवन नारकीय बना देती है । होता यह है कि जब पति-पत्नी के बीच अविश्वास की दीवार खड़ी हो जाती है,तो दोंनों में कोई एक दूसरे को छोड़ देता है । पत्नी किसी अन्य पुरूष के साथ रहने चली जाती है,क्योंकि हमारे कानून में पत्नी को यह छूट मिली रहती है कि वह चाहे किसने भी सम्बंध बनाए कोई कानून उसे सज़ा नहीं दे सकता,क्योंकि कोई भी पति कानून के पास जाना नहीं चाहेगा किन्तु पित्नयां ऐसा करती है और भावना में बहकर या अपने अधिकारों का दुरूपयोग कर वह ऐसा दुष्कर्म कर बैठती है । पति,पत्नी पर कोई आरोप नहीं लगाता,क्योंकि यदि वह ऐसा करेगा तो उसे धारा 498-क के अन्तर्गत कोई भी सज़ा हो सकती है ।वह पति पर दहेज,प्रताड़ित और शंकालु होने का आरोप लगा सकती है, पति-पित्नयों में इस प्राकर का विश्वास टूट जाता है और वे अविश्वास के शिकार हो जाते हैं । निरापराधी को सज़ा मिल जाती है कि उसका अपराध साबित हो गया है । उसे यह भी सज़ा मिल जाती है कि परिवार और समाज उस पर से विश्वास उठा लेता है । सबसे बड़ा तथ्य यह है कि आज का आम आदमी किसी भी व्यक्ति की बुराइयों को बहुत जल्दी मान लेते है और उसे सज़ा देने के लिए तत्पर हो जाते है किन्तु व्यक्ति की अच्छाइयों को इसलिए खारिज कर देते हैं कि उसकी अच्छाइयां परिवार या समाज मानने को तैयार नहीं होता ।
घर से बाहर निकलने पर मैं देखती हूं कि सड़क पर कोई दुघZटनाग्रस्त पड़ा है किन्तु मैं चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर सकती । यह देखती हूं कि रेस्तरां के पास कोई भूखा भिखारी खड़ा है किन्तु मैं उसे खाने को कुछ नहीं दे सकती या किसी की मदद करना चाहती हूं किन्तु इस भय या डर के कारण नहीं कर पाती कि कहीं कानून मुझे घसीट न लें या मदद के बहाने कोई मुझे लूट न लें या ठग न लें । दफ्तर से देर से छूटने पर किसी लड़की की मदद करना भी गुनाह लगता है क्योंकि मदद करने के लिए आगे बढ़ी कि देखती हूं कि वह ठग है और राहगिरों को लूटने के लिए षढ़यन्त्र रच रही है । हमारी छोटे से छोटा विश्वास हमें अविश्वास में लपेट लेता है और अविश्वास की शिकार हो जाते हैं।
हमें अपने बुजुर्गों से हमेशा हिदायत मिलती है कि कुछ भी करों तो सोच-समझकर किया करो । किसी पर विश्वास करने से पहले सोच लो कि वह विश्वास के योग्य है या नहीं । चौकस रहो और अनजाने लोगों से एकदम घनिष्ठता मत बढ़ाओ ।
इधर हर क्षेत्र में,चाहे राजनीति हो,धार्मिक क्षेत्र हो,सामाजिक क्षेत्र हो या साहित्य का क्षेत्र हो,हर क्षेत्र में अविश्वास बढ़ा है । साथ-साथ में उठते-बैठते है किन्तु एक दूसरे के प्रति अविश्वास पाले रहते हैं । किसी से भी मित्रता या घनिष्ठता का तात्पर्य अन्यथा लगाया जाता है । किसी खूबसूरत महिला या पुरूष से मित्रता के मामले में भी चेतावनियां मिलने लगता है कि पहले दो-चार बार सोच लो फिर आगे कदम बढ़ाएं । भरोसे की बुनियाद बहुत कमजोर होतीहै ।
विश्व में जितनी भी घटनाएं होती है,अमूमन उसके पीछे अविश्वास की गणित काम करता है । हम विश्वास तोड़ने की जितनी घटनाओं से दो-चार होते हैं,हमारे सम्बंध उसी तरह से बनते जाते हैं । केवल वैवाहिक सम्बंध ही नहीं टूटते है बल्कि अविश्वास की दीवार हमारे परिवार,समाज और सम्पूर्ण समुदाय में पसरती जाती है । उत्तर प्रदेश में यादव समाज दलितों पर विश्वास नहीं करते । बिहार में दलित ब्राह्मणों पर विश्वास नहीं करते । पाकिस्तान में सुन्नी शियाओं पर विश्वास नहीं करते । महानगर की स्थानीय जनता किसी पर विश्वास नहीं करते । हरियाणा में बड़े-बुजुर्ग बेटियों पर विश्वास नहीं करते,वहां खानदान की इज्जत के नाम पर बेटियों का कत्ल कर देते हैं ।
अविश्वास के पसरते पैर के कारण आज प्रत्येक व्यक्ति अकेला होता जा रहा है,वह इसलिए कि अब उसने विश्वास करना छोड़ दिया है । वास्तव में देखा जाय तो अब दुनिया इतनी सरल नहीं जितनी कभी हुआ करती थी । विपरीत इसके जैसे-जैसे हम विश्वास करना छोड़ देते हैं,वैसे-वैसे हम भीतर से खोखले होते चले जाते हैं । हम किसी से पे्रम करते हैं,उस पर विश्वास करना चाहते हैं,उस पर समर्पित होना चाहते है किन्तु भीतर ही भीतर से डरते भी है । इसका कारण क्या हो सकता है । हो सकता है कि हम पहले ही कल्पना कर लेते हैं कि जिस पर विश्वास करना चाहते हैं,वह विश्वसनीय है भी या नहीं अथवा जहां हम कुछ अच्छा चाहते हैं,वहां हम विश्वास करने से डरते भी है ।
इस मानव समाज में हम उक दूसरे के सम्पर्क में बने रहते हैं । इसके पीछे प्रमुख कारण विश्वास का होना है । लेकिन चूंंकि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं,इसलिए विश्वास के वैज्ञानिक पहलू पर भी विचार कर लेना मुनासिब लगता है । इसके लिए प्रमुखत:जैव-विज्ञानिक कारण जिम्मेदार होते हैं । जिन लोगों के रिश्ते में बहुत ज्यादा विश्वास विद्यमान होता है अथवा नहीं भी होता,इसमें शरीर में उत्पन्न होनेवाले हार्मोन्स भी जिम्मेदार होते हैं । मनुष्य के मस्तिष्क में ऑिक्सटोसिन नामक हार्मोन्स उत्पन्न होता है । ऑिक्सटोसिन नामक हार्मोन्स एक ऐसा रासायनिक पदार्थ है,जो एक दूसरे पर विश्वास करने के लिए पेरित करता है । कभी-कभी यह विश्वास एक तरफा भी होता है । दूसरे तरह से यह भी कहा जा सकता है कि कई प्रकार के हार्मोन्स हमारे आचार-विचार पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं । पारीवारिक और सामाजिक जीवन के लिए यह जरूरी भी है । इसके विपरीत टेस्टोस्टेरॉन नामक हार्मोन्स किसी भी व्यक्ति के विश्वास को कम करने के लिए काम करता है । लेकिन दोनों हार्मोन्स मिलकर व्यक्ति के सामाजिक जीवन का दर्पण बन जाता है।
भरोसा,विश्वास और पे्रम का दूसरा रूप है । यही वह तत्व है,जिसके कारण हम समाज में सम्मान,पे्रम और विश्वास की जगह बना सकते हैं । यदि हम इन चीजों से महरूम हो जाएं तो हमारे इस स्वणीZय जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । तो आओ,पहले हम विश्वास करने कराने की कोशिश करें ।

- संगीता साहबजी
इन्द्रपुरी,, भोपाल मप्र
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ग़ज़ल


आज कहते हो कि मुझको सारी दुनिया चाहिए,
पहले क्या तुमने कभी सोचा,तुम्हें क्या चाहिए ।

फूल,शबनम,चांद,तारे सब इसी दुनिया में है
और यह सब आपकी किस्मत में होना चाहिए ।

ज़हर समझौते का पीने का तजुबाZ दोस्तों
जिन्दगी में और दोहराया न जाना चाहिए ।

मैं तेरे इन्साफ का कायल हूं ऐ मालिक मगर
नूर तेरा मेरे घर पर भी बरसना चाहिए।

लफ्ज़ सारे हो रहे है सुन्न मेरे उस घड़ी
सोचता हूं,जब मुझे भी कुछ तो कहना चाहिए ।

-- राम मेश्राम
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पुस्तक समीक्षा
.माया नगरी का सम्राट

किसी भी रचनाकार की प्रतिभा उसकी कल्पनाशक्ति तथा जीवन के अनुभवों से आंकी जाती है। कल्पनाशक्ति तथा जीवन अनुभावों के साथ रचनाकार के लिए भाषा और शैली का होना अनिवार्य है । बिना भाषा और शैली के कोई भी रचनाकार अपनी कल्पना को मूर्त रूप नहीं दे सकता । चन्द्रभान राही के पास कल्पना,जीवन अनुभव के साथ-साथ भाषा और शैली भी है ।
परिककथाओं की तरह तिलिस्मी कथाओं का इतिहास लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष पुराना है । बगदार की तिलिस्मी कहानियां जैसे अलिबाबा चालिस चोर,तोता-मैना,बेताल कथाएं और एक सौ वर्ष पुरानी चन्द्रकान्ता सन्तति जैसी तिलिस्मी एवं रोमांचक कथाओं ने जनमानस के दिलो-दिमाग पर काल्पनिक रोंमांचकारी घटनाओं का प्रभाव डाला है । भारतीय सिनेमा और दूरदर्शन भी इन रोमांचकारी कथाओं को आकषित किया है। समाज का प्रत्येक वर्ग इन तिलिस्मी और रोमांचकारी कथाओं को पसन्द करता है ।
तिलिस्म की अवधारणा अथर्ववेदकालीन समय से चली आ रही है । शत्रुओं को स्तम्भित करने से लेकर सम्मोहन,उच्चाटन,मारण,मायावी जान फैलाना,गायब हो जाना तथा गुप्त ज्ञान प्राप्त कर कार्य सम्पादन करना आदि विद्याएं मानव समाज के पक्ष और विपक्ष में भी कार्य करती है । दुष्ट आत्माएं ही पिशाच कहलाती है जबकि अच्छी आत्माएं दैवी गुणों से सम्पन्न होने के कारण दैवी आत्माएं कहलाती है । दुष्ट पिशाच आत्माएं दुष्टता दिखाती है और इन्सानों को कष्ट पहुंचाती है,जबकि दैवी आत्माएं ऐसा नहीं करती । ``माया नगरी का सम्राट´´ के दम-पिशाच जैसी आत्माएं दुष्टता की श्रेणी में आती है तो सम्राट के शरीर में प्रविष्ट आत्माएं मानव समाज की सेवार्थ दैवी रूप में कार्य करती है। दैवी आत्माएं तब तक कठोर कदम नहीं उठाती जब तक कि उन्हें भयानक क्षति न हो,तब तक वे किसी भी कठिन परिस्थिति में शान्त ही रहती है । सम्राट में समाहित दैवी आत्माएं कठिन परिस्थिति में भी सहज रहती है और अपने शत्रु को भी क्षमा कर देती है । अधिक शक्तिशाली दुष्ट आत्माएं अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए कुचक्र चलती है,भले ही उससे माना समाज को क्षति पहुंचती हो और अन्त में उनकी हार भी होती है ।
तिलिस्म का मायावी दमोखम रोमांचकारी और भयावह होता है । जो आंखों से दिख रहा होता है,वह वास्तव में होता नहीं और जो हो रहा होता है,वह समझ से परे होता है । अंधेरी रात में स्मशान भूमि का हृदय दहलानेवाला वातारण साधारण मनुष्य के लिए प्राण घातक हो सकता है,वह शक्तिशाली के लिए । इसी तरह कमजोर हृदयवालों के लिए तिलिस्मी कथाएं घातक हो सकती है । यह तो रचनाकार की कल्पनाशक्ति पर निर्भर करता है कि वह पाठक को कितना रोमांचित करता है । चन्द्रभान राही पूरे उपन्यास को प्रारंभ से अन्त तक रोमांचकारी बनाए रखे हुए है । कहीं भी कण्टीन्यूटी टूटती नहीं और पाठक अन्त तक उपन्यास से बंधा रहता है ।
मनुष्य का अवचेतन मन सुषुप्त अवस्था में अन्तर्मन के किसी कोने में अवस्थित रहता है । अवचेतन मन की शक्ति का विस्फोट महाशक्ति के विस्फोट के समान होता है । यह विस्फोट कुण्डलिनी जागरण का मूल रूप है । कुण्डलिनी के जागरण से मनुष्य भूत,वर्तमान और भविष्य की घटनाओं तथा संभावनाओं को दूरदृष्टा की तरह देखता है । साधक की वाकशक्ति प्रबल हो उठती है और वह जो कहता है,वह पूर्णत: सत्य होता है । वह अपनी इच्छानुसार जीवन की गतिविधियों को नियन्त्रित करने में सक्षम हो जाता है । उसका मस्तिष्क वर्तमान स्थिति से बहुत पीछे से लेकर बहुत आगे के समय की ओर गतिमान होता है । दूरश्रवण की शक्ति बढ़ जाती है और दूर किन्तु दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है । वह घटनाओं और संभावनाओं को दूरदर्शन की तरह स्पष्ट देख लेता है। अवचेतन का सक्रिय होना या कुण्डलिनी का क्रियाशील होना,दोनों योग की क्रियाओं के अन्तर्गत एक महाविद्या है। यह गुरू व्दारा प्रदत्त या स्वयं की कठोर साधना से ही सम्भव हो सकता है । चन्द्रभान राही का उपन्यास ``माया नगरी का सम्राट ´´ का मुख्य पात्र सम्राट 25वीं सदी का पात्र है । वह 25वीं सदी कीसंभावनाओं को देखता,सुनता और सोचता है। वह हर संभावनाओं को पूर्वानुमान की तरह स्पष्ट करता है । यह उसका पूर्वानुमान नहीं है बल्कि वह अनुमान के पूर्व भविष्य की संभावनाओं को बता देता है । वह सामान्य मनुष्य है लेकिन सुपरमेन की तरह उसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियां कार्य करती है । वह नहीं जानता कि वह यह सब कैसे कर लेता है किन्तु वह स्वयं ही कुछ करने लगता है । यह उसका अवचेतन मन करता है,जो उसके शरीर में सुषुप्त है,जो उसे पवित्र आत्माओें से प्राप्त हुआ है।
किसी मृत शरीर में आत्मा का प्रवेश योग के अन्तर्गत एक जटिल प्रक्रिया है । स्वामी शंकराचार्य किसी सम्राट के मृत शरीर में प्रवेश छह माह रहकर कोकशास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । सम्राट के शरीर में तीन आत्माओं का एक साथ प्रवेश होना निश्चित ही एक बड़ी घटना है । यह वे आत्माएं है,जो साित्वक या पवित्र शक्तियों से सम्पन्न है और विश्व कल्याण के लिए कुछ अच्छे कार्य करना चाहती है । वे कार्य भी करती है। कहीं सफल होती है तो कहीं असफल भी होती है । सफलता और असफलता का यह खेल निरन्तर चलते रहता है ।
प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं,पहला सकारात्मक और नकारात्मक । सकारात्मक पहले में वे तमाम सफलताएं,अच्छाइयां,पूण्य,प्रकाश,ज्ञान,सत्य,शिवम और सुन्दरम शामिल है तथा नकारात्मक में इन गुणों के ठीक विपरीत,यथा-पाप,असत्य,अज्ञान,अंधेरा,बुराइयां आदि । वैसे भी सकारात्मक वस्तु के बिना नकारात्मक वस्तु का अस्तित्व नहीं और नकारात्मक वस्तु के बिना सकारात्मक वस्तु का अस्तित्व नहीं । पाप-पूण्य,अच्छाई-बुराई,प्रकाश-अंधेरा,देव-देवता आदि एक दूसरे के बिना अधूरे ही है । वस्तुत: प्रकृति ने दोनों वस्तुओं का अस्तित्व कायम रखा है ताकि प्रकृति के दोनों वस्तुओं की उपस्थिति का भान हो सकें । चारों वेद तथा सभी धर्म ग्रन्थ पाप,असत्य,अंधेरा,शत्रुओं,दुरात्माओं तथा नकारात्मक वस्तु के विपक्ष प्रगट हुए है । समान्यत: कहा जा सकता है कि आदिकाल से असत्य,पाप और दुविैचार तथा पूर्ण और सुविचार के विरूद्ध कहते चले आ रहे हैं । भविष्य में अनन्तकाल तक यह सिलसिला चलते रहेगा ।
वेद भारतीय संस्कृति के मूलाधार है । इनमें अनादिकाल से चली आ रही सृष्टि को सन्तुलित तथा संचालित करने के लिए सैकड़ों सूक्त का उल्लेख मिलता है । इतना ही नहीं दृश्य और अदृश्य सभी गोपनीय तथ्यों को समाहित किया गया है । सकारात्मक शक्तियों का आवाहन नकारात्मक शक्तियों के विपक्ष में किया गया है । चन्द्रभान राही ने जिस दानव वेद का उल्लेख किया है,वह वस्तुत: नकारात्मक शक्तियों का प्रतीक ज्ञात पड़ता है किन्तु वैसा है नहीं क्योंकि दानव वेद में सृष्टि के सन्तुलन के नियमों का उल्लेख किया जाना प्रतीत होता है । उसके दुरूपयोग से सृष्टि का क्षति होने की संभावना है और यम दानव और दानव यमराज उसी वेद को प्राप्त कर सृष्टि पर अपना अधिपत्य चाहते हैं । जिस तरह वेद माता गायत्री वेदों की संरक्षक है,उसी तरह ``माया नगरी के सम्राट ´´ में वेद कन्या दानव वेद की संरक्षक है । चन्द्रभान राही की कल्पना की ऊंची उड़ान और उनके मस्तिष्क की सोच 25वीं सदी की ओर तेज रफ्तार से गतिमान है। वेदव्यास ने पांच हजार वर्ष पूर्व श्रीमद्भागवत पुराण में चाणक्य से लेकर मौर्यों के अभ्युदय को भविष्यदृष्टा की तरह उल्लेख किया है तो चन्द्रभान राही ने पांच सौ वर्ष पूर्व 25वीं सदी के सुपरमेन सम्राट की परिकल्पना की है । कौन जाने,हो सकता है कि 25वीं सदी में चन्द्रभान राही की परिकल्पना साकार हो उठे । रचनाकार सृष्टि की परिकल्पना करता है । रचनाकार की परिकल्पना कहीं-कहीं घटित हो चुकी होती है या भविष्य में घटित होनेवाली होती है,जिसे वह जाने-अंजाने अपनी लेखनी के माध्यम से उद्घाटित कर देता है ।
दम पिशाच और महाराज यम यह दोनों पात्र असत्य और पाप के प्रतीक है,जो सदैव मानवता के विपक्ष में खड़े रहते हैं । सारे संसार पर राज करने का सपना पालकर उसे साकार करने में अपनी दुष्ट शक्तियों का उपयोग करते हैं । जैसा कि आमतौर पर संसार पर विजय पाने और वर्चस्व की आकांंक्षा से कोई शक्तिशाली शक्ति करती है । हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिलती किन्तु वे मानव समाज में दहशत और आतंक अवश्य फैलाते हैं । वे सतत कुचक्र चलाते रहते हैं । सर्वमान्य है कि देर सबेर ही सही,हमेशा सत्य की विजय होती है ।

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नारी अस्मता
--संगीता

नारी अस्मता को लेकर लगातार बहसें होते चली आ रही है । ये बहसें आज भी जारी है और लगता है कि निरन्तर चलते रहेगी । इसी चलनेवाली निरन्तर बहस के बहाने फिर एक बार इस पर विचार किया जा रहा है । मानवीय चेतना के दो हिस्से नज़र आते है,प्रथम यह प्रकृति की एक देन है,तो िव्दतीय यह सभ्यता और सांस्कृतिक गतिविधियों से आकार लेता है । ये दोनों पहलू एक सिक्के के दो पहलू है,इनमें अन्तर किया जाना कठिन है । इसलिए हम कई बार सांस्कृतिक उपलब्धियों को स्थायी प्राकृतिक निधि समझने की लगातार भूल कर बैठते हैं । प्रारंभिक दौर में संस्कृति भी एक प्रकार से मूक ही होती है तथा अपने से प्रकृति को श्रेष्ठ समझती है । इसलिए प्रकृति से समन्वय के भाव ही प्रारंभिक मनुष्य के सारे मूल्यों के स्रोत होते है ।
सामाजिक सृष्टि की पहली कड़ी परिवार है,जिसकी बुनावट बुनियादी मूल्यों से निर्मित होता है । हमारे मूल्य और पारिवारिक अन्त:संरचना एक दूसरे से इस तरह चस्पा है कि एक दूसरे से पृथक किया जाना आसान नहीं है । इसमें परिवर्तन तभी आ सकता है,जब पारिवारिक ढांचे में कुछ परिवर्तन किए जाए । प्रारंभिक मूल्यों को लेकर मनुष्य व्दारा प्रथमत: पारिवारिक गृहस्थी बसाई गई । इस गृहस्थी का मुखिया पुरूष वर्ग होता रहा है,क्योंकि दूसरे व्यक्ति पर या परिवार पर शासन किया जा सकें । यह शासन इतना स्पष्ट नहीं लग रहा था बल्कि यह ज्ञात या अज्ञात रहता था कि कौन किस पर शासन करेगा, पुरूष प्रधानता या स्त्री प्रधानता,लेकिन अधिकतर पुरूष प्रधान परिवारों में वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई बरकरार रखी गई और पुरूष प्रधान होता गया । साफ-साफ जोर देकर कुछ नहीं कहा जा सकता,वस्तुत: प्रारंभिक दौर में मानवीय संगठन जीवन संरक्षण और संवर्द्धन के सीमित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही बनते हैं किन्तु ज्यों-ज्यों सांस्कृतिक विकास होने लगता है,वे मुखर होने लगते हैं । मनुष्य की ईच्छाएं अपना विस्तार खोजने लगती है और भीतर ही भीतर व्यक्तिगत संसार देखने के सपने गुनना शुरू हो जाता है । ऐसे में वर्चस्व की भावना उत्पन्न होना कठिन नहीं अपितु आसान हो जाता है । वस्तुत: वर्चस्व शारीरिक सामथ्र्य पर आधारिक ही नहीं हुआ करता अपितु इसका स्वरूप निरन्तर बदलता रहता है,चाहे वह किसी अन्य प्रकार का भी हो । परिणामत: व्यक्ति या वर्ग विशेष पर शासन कायम करना आसानर हो जाता है । यह शासन जिम्मेदाराना होने के बजाय ग़ैर-जिम्मेदाराना हो सकता है । ऐसा इसलिए कि नारियों को अपनी हीनता के भाव पुरूषों से तथा पुरूषों को अपनी श्रेष्ठता के भाव नारियों से नहीं बल्कि अपनी मां-बहनों,माता-पिता की भूमिकाओं को देखकर मिलते है । ये माताएं-बहने परिवार के पुरूष वर्ग को नारियो पर शासन करने के लिए पे्ररित करती रहती है ,ऐसा क्यों,क्योंकि नारियां अपने समान दूसरी नारी को प्रताड़िता होते देख खुशह होती है । परिणामस्वरूप नारियों पर अत्याचार बढ़ने लगता है । यह मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव है,इसे नकारा नहीं जा सकता ।

वर्चस्व की अवधारणा नई नहीं है बल्कि आदिम है, । जब मनुष्य जड़ वस्तुओं से लेकर चेतन वस्तुओं तक अपना अधिकार जताने का प्रयास करता था । आज भी यह अवधारणा बलवती दिखाई देती है । वर्चस्व की दूसरी अवधारणा संस्कृति को प्रकृति पर विजय के रूप में देखने के विश्वास से उद्भूत है। सामान्यत: पुरूषों को संस्कृति और नारियों का प्रकृति के समानार्थक देखने की प्रवृत्ति रही है तथा सामाजिक विकास को प्रकृति पर नियन्त्रण के विकास के रूप में रेखांकित किया जाता है ।
सामान्यत: आदशो तथा मूल्यों को सकारात्मक रूप से देखने की परंम्परा रही है लेकिन इनका हमारे जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है । हम सोच भी नहीं पाते,यह हमारा अन्तर्विरोध है कि आदशोZें और मूल्यों के बिना समाज के प्रति प्रतिबद्धता नहीं आती एवं समाज व्यवस्थित नहीं हो पाता तथा दूसरी परम्परा में मूल्यबोध अनेक प्रकार की विषमताएं जताते है । हम यह कह सकते हैं कि जिन सभ्यताओं में परिवर्तनों को आत्मसात करने की क्षमता नहीं होती तथा जो परिवर्तनों के अनुसार अपना अनुकूलन नहीं कर पाती,, वे नष्टप्राय: हो जाती है ।
इसे यों कहा जा सकता है कि मनुष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसकी विश्वदृष्टि एवं उसका जीवन दृष्टिकोण होता है,उसके बाद राजनीतिक चेतना और उसके बाद मूल्यबोध बनता है ।
नारियों पर वर्चस्व की अवधारणा अब तक लगातार जस की तस तटस्थ दिखाई देती है । इसके पीछे केवल पुरूष का ही हाथ नहीं है बल्कि नारियों का भी हाथ स्पष्ट दिखाई देता है । पुरूषों को नारियोें के विरूद्ध उकसाने की परम्परा नारियों में रही है या यों कहें कि प्रत्येक नारी चाहती है कि जिस तरह वह शोषित हो रही है,दूसरी नारी भी उसी तरह शोषित होती रहे और वह उस शोषण की पराम्परा में भागीदारी निभाने में नहीं चूकती । सदियों तक नारी पुरूष-प्रधान समाज के अत्याचारों का शिकार रही है। यह तथ्य पूरे विश्व की नारियों पर लागू होता है । इन अत्याचारों का सिलसिला कब और कैसे शुरू हुआ,यह बता पाना कठिन है,लेकिन इतना साफ जाहिर है कि यदि नारी ने एक दिन स्वयं को शोषित होने की स्थिति बना ली है,तो इसके लिए कुछ सीमा तक नारी ही दोषी है । वह नारी जिसने अपनी सुविधा के लिए आरामदायक भूमिका का वरण किया है और इसी आराम के बदले उसने सारे अधिकार पुरूष के हाथों सौंप दिए है । उसने अपने लिए केवल प्रजनन और घर सम्भालने तक के अधिकार रखे हैं और पुरूष पर निर्भर रहना स्वीकार कर लिया है । ऐसे में पुरूष का उस पर हर तरह से हावी हो जाना स्वाभाविक ही है । कारण जो भी रहे हो,नारी,पुरूष को अपने सारे अधिकार दे देती होगी । आगे चल कर उसके मन में यह विचार बस गया कि वह वास्तव में कमजोर है,किसी योग्य नहीें है । बस,शायद यही से नारी के शोषण की परम्परा प्रारंभ हे गई है । जब एक नारी पर यह विचार हावी हो जाती है तो वह दूसरी नारी पर भी यह विचार थोपने के लिए पुरूष समाज को पे्ररित करती है और हो जाता सिलसिला नारी शोषण का । तब नारी को अपने पर पुरूष समाज के अधिकार का एहसास होने लगता है और वह स्वतन्त्र होने के लिए छटपटाने लगती है । बावजूद वह अन्य नारी को शोषित होने के लिए छोड़ देती है किन्तु स्वयं ही मुक्त होना चाहती है। लगता है,आज भी नारी स्वतन्त्र होना नहीं चाहती और जहां वह स्वतन्त्र होना चाहती है,वहां वह किसी न किसी लालच में आकर गर्त में डूबने के लिए तैयार हो जाती है । वह तो डूबने की लगती है किन्तु साथ में अन्य नारी को भी डूबने के लिए पे्ररित करती है । इस तरह यह परम्परा लगातर चलने के लिए खुली छूट प्राप्त हो जाती है । शरीर पर से वस्त्र उघाडकर सरे बाजार अंग प्रदर्शन कर आत्म मुग्ध होना इसी श्रेणी मे ंआता है । वह समझती है,वह स्वतन्त्र हो गई है किन्तु ऐसा नहीं, वह स्वतन्त्र होने का भ्रम पाल बैठती है और पुरूष-समाज में स्वतन्त्र और स्वच्छन्द होकर निर्वस्त्र हो प्रसन्न हो उठती है । रेस्तरां और रैंप पर निर्वस्त्र नारियों को देखा जा सकता है, जहां वह स्वतन्त्रता के साथ स्वच्छन्दता का वरण करती है और नग्न होकर खुश होने की गलत-फहमी पाले बैठती है ।
आज स्त्रियों में भी अपनी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता को लेकर तनातनी चल रही है । अधिकांश स्त्रियां अब पति के साथ रहना पसन्द नहीं करती,बल्कि वह स्वतन्त्र और स्वच्छन्द रहना चाहती है । अभी हाल के सर्वे से यह पता चला है कि अधिंकाश स्त्रियां सैक्स को लेकर खुलकर सामने आ रही है और पति की कमजोरी को सिरे से नकार रही है । वैवाहिक जीवन में सैक्स पार्टनर की कमजोरी को नकारने के कारण महिलाएं स्वतन्त्र रूप से अन्यत्र स्वच्छन्दता चाहने लगी है । असन्तुष्टि को लेकर पति और पत्नी के बीच दूरियां बढ़ने लगी है । हर क्षेत्र में कामयाबी के नए आयाम बनानेवाली महिलाएं अब अपने निजी सुख को लेकर आवाज़ बुलन्द करने लगी है । अदालतें,परिवार परामर्श केन्द्रों,मनोचिकित्सकों और यौन रोग विशेषज्ञों के पास पहुंचनेवाली कई विवाहित महिलाएं खुलकर बोलने लगी है कि वे निजी सुख के मामले में अपने पति से सन्तुष्ट नहीं है । विवाह के बाद महिलाएं सामाजिक वर्जनाओं से बाहर निकल रही है । पिछले दिनों होशंगाबाद की एक लड़की ने बेबाक टिप्पणी देकर हैरान कर दिया। उसका कहना है कि उसका पति सन्तुष्टि देने में सक्षम नहीं है,इसलिए उसके साथ वह रहना नहीं चाहती । परिवार बिखरने के पीछे विवाहित महिलाओं की असन्तुष्टि अहम कारण बन रही है । इक्कीसवीं सदी की महिला अब भारतीय संस्कारों से ऊपर उठकर पश्चिमी संस्कारों से भरी दिखाई देने लगी है । वह रैंप पर कपड़े उतारकर चलने मेें अपनी शान समझने लगी है । पुरूष जितना अधिक ढंकता जा रहा है,स्त्रियां उतना अधिक निर्वस्त्र हो रही है । आज महिलाओं के शरीर पर मात्र बीस प्रतिशत कपड़ा बचा है । बाकी कपड़ा उसने उतार फेंका है । झूलसती धूप हो या कंपकंपाती हुई ठण्ड,वह अपने अंगों का पूरा प्रदर्शन करने से नहीं कतराती । अंग प्रदर्शन आज नारियों का मुख्य उद्देश्य हो गया है। यह कविता आज के नारियों के लिए उपयुक्त होगी-

सच तो यह है कि सभ्यता नहीं है यह
सभ्यता के आसपास बिखरी
एक आयातित अश्लीलता है यह
जो एक औरत को सभ्य होने से रोकती है
एक अति सभ्य औरत दिन के उजास में कपड़े उघाड़
रैंप पर चलने को लालायिक होती है
मां-बाप और भाई के सामने ।
इस विश्वास के साथ कि लौंटेंगे दिन सभ्यता के
फिलहाल आदिम सभ्यता जैसा ही
पहनना पसन्द करती है
आजकल की औरतें ।

एक ओर हम नारी स्वतन्त्रता की बात करते हैं,नारी पर हो रहे उत्पड़न पर गहन विचार विमर्श की बात करते हैं। स्त्री-विमर्श को लेकर बड़े-बड़े आयोजन करते हैं और स्त्री के पक्ष में लगातार सकारात्मक निर्णय लेते हैं,वहीं उत्तर आधुनिक कहलानेवाली स्त्रियां स्त्री-विमर्श को सिरे से खारिज करने में लगी है । ऐसा नहीं कि आधुनिक विचारधारा वाली स्त्रियां,स्त्रियों की स्वतन्त्रता के पक्ष में नहीं है या वे स्त्रियों के अधिकारों के प्रति संजग नहीं है या सदैव स्त्रियों का शोषण ही चाहती है बल्कि कहना होगा कि वे जितनी स्त्रियों की स्वतन्त्रता के पक्ष में और शोषण के विरूद्ध जागरूक है,उतनी ही वह स्वच्छन्दता को हवा देने में भी अग्रणी हो रही है।
अति महत्वाकांक्षी महिलाओं को लेकर यदि हम विचार करें तो पता चलता है कि महिलाएं अगर कुछ मुक्त हुई है तो इसका श्रेय साहित्यिक परिचर्चाओं को कम सिनेका या टीव्ही संस्कृति को अधिक देना पड़ेगा । कामजन्य फंन्तासी,जो एक पक्षीय भोग में साकार नहीं हो सकती था जिसका उत्कर्ष बराबरी पर आधारित स्थूल दैहिक सम्बंधों में ही सम्भव है । इस तरह के भाव सिनेमा या टीव्ही संस्कृति से ही सामाजिक चेतना में प्रविष्ट हुए है । परिणामस्वरूप पुरूष वर्ग ने महिलाओं को महत्व देना प्रारंभ कर दिया । वस्तुत: यौन`वर्जनाओं से मात्र महिलाओं का जीवन ही प्रभावित नहीं हुआ बल्कि पुरूष वर्ग ने भी अपने जीवन में बहुत कुछ खो दिया है । सिनेमा और टीव्ही संस्कृति के चलते यौन जनित जानकारियोंं तथा सुरक्षित यौन सम्बंधों के उपायों से महिलाओं को जो आत्मविश्वास मिला है,वह नारी-मुक्ति आन्दोलनों या नारों से नहीं मिल सकता ।
नारी अिस्मता को बचाए रखने के लिए उन्हें स्वच्छन्दता को सिरे से खारिज करना होगा । स्वयं को कमज़ोर,असहाय,स्वच्छन्द और भीरू न बनाते हुए एक आत्मविश्वासी नारी बनना होगा । आज शिक्षित और आधुनिक नारियां जिस फैशन को लेकर आत्ममुग्ध है,उस फैशन को खारिज करना होगा और एक सुदृढ़ और अनुशासित समाज के निर्माण के लिए आगे आना होगा, तब ही वास्तविक नारी अिस्मता की रक्षा हो सकेगी । पुरूष-वर्ग को खुश करने के लिए खुले आम निर्वस्त्र होकर अंग प्रदर्शन करना भी नारी-शोषण का तरीका है ।
अन्त में यह कि जब तक नारी स्वयं ही आत्म-अनुशासित होकर दृढत्र प्रतिज्ञ नीं होगी,तब तक उसका शोषण होता रहेगा ।

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कविता एवं कवि

हर कवि एक तरह के परिवेश में जीता है। हर कवि की परिस्थितियां एक सी नहीं होती ।
हर कवि को अनुकरण से बचकर,अपना रास्ता बनाना चाहिए ।
जो लोग लिखना प्रारंभ कर रहे हैं,उन्हें साहित्य के इतिहास का ज्ञान होना बहुत जरूरी है,क्योंकि वह यह जान सकें कि उसके पहले बड़ लेखकों ने अपने समय के मानवीय संघर्ष को कैसे जिया है । उसे कैसे परिभाषित किया है । मनुष्य जीवन की खोज में वे कहां तक पहुंचे हैं ।
महान कवियों से उनके अतीत और क्लैसिक्स का गहरा ज्ञान सीखना लाजमी है । हमें केवल अपने ही क्लैसिक्स नहीं बल्कि विश्व के महान क्लैसिक्स भी पढ़ने चाहिए,क्योंकि मूलत: काव्यात्मक सृजनशीलता सभी देशों और जातियों में एक समान होती है । महान क्लैसिक्स एक तरह से हमारे लिए महान प्रकाश स्तम्भ का कार्य करते हैं । क्लैसिक्स का अध्ययन हमारे परोक्ष ज्ञान का बहुत बड़ा और अनिवार्य स्रोत है। हम निरे ज्ञान से अच्छे नकलनवीस बन सकते हैं किन्तु बड़े लेखन नहीं बन सकते ।
मौलिकता केवल लिखने पढ़ने से नहीं आती,वह आती है, अपने संघर्ष धर्मी लोगों के जीवन को पास से देखने से । प्रकृति और समाज के सूक्ष्म पर्यवेक्षण से । इसके अलावा हमें विश्व साहित्य पढ़ना चाहिए,चाहे जिस भी देश का हो ।
हमें उस साहित्य को पढ़ना चाहिए जो साम्राज्यवाद से सीधे लड़नेवाले देशों में लिखा जा रहा हो ।
राजनेताओं और राजनीतिक घटनाओं पर व्यंग्य विडंबना दगाने से बेहतर है,हम निर्धनों की दुर्दशा का चित्रण करें या उभरती जनशक्ति को बताएं ।
सार्थक लेखन के लिए जनपक्षीय राजनैतिक विचारधारा से लैस होना जरूरी है ।
नवीनता,परम्परा को बिना समझे,रचना मे मुमकिन नहीं । वही नवीनता टिकाऊ और अर्थवान है जो परम्परा के विकसित होते गर्भ से फूटती है । नवीन होने का अर्थ है परम्परा को अपने समयानुकूल विकसिल करना । प्रसंगानुकूलता परम्परा का गुण भी है और शर्त भी है ।
साहित्य की उपलब्धियों के पीछे जीवन के बड़े त्याग छिपे है । इसके लिए हमें अपने निजी आचरण की संस्कृति भी विकसित करनी होगी ।
अन्त में,
वही समकालीन है जो अपने समय और समाज की छिपी गति को पकड़ सकें ।
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हे कृष्ण !

हे कृष्ण ! तेरी ही पलकों के इशारे पर मुनि-मन-मोहिनी महामाया नटी थिरक-थिरककर नाच रही है । तेरे ही संकेत से महान देव रूद्र अखण्ड ताण्डव नृत्य करते हैं । तुझे ही रिझाने के लिए हाथ में वीणा लिए सदानन्दी नारद मतवाला हो नाच नाच रहे हैं । तेरी ही प्रसन्नता के लिए व्यास-वाल्मीकी और शुक-सनकादि घूम-घूमकर और झूम-झूमकर तेरा गुणगान करते हैं । तेरा रूप ता ेबड़ी ही मनोहर है । जब तेरी वह रूप-माधुरी तुझको ही दीवाना बनाऐ डालती है, तब ज्ञानी-महात्मा,सन्त-साधु और तेरे पे्रमी जनों के उस पर लोक परलोक निछावर कर देने में तो आश्चर्य ही क्या है र्षोर्षो तुम तो आनन्द के असीम सागर हो । तेरे आनन्द को पाकर बड़े-बड़े सिद्ध-साधक अपना जीवन सार्थक कर लेते हैं । हे कृष्ण ! तुम तो अनिर्वचनीय पे्रम के अचिन्त्यस्वरूप हो । तुम्हारे पे्रम के एक कण से ही विश्व के समस्त ज्ञानी-विज्ञों के हृदय मोहित हो जाते हैं ।
हे कृष्ण ! ऐसा सामर्थ किसमें होगा,जो तुम्हारे अचिन्त्य स्वरूप को पा सकें । तुम्हारे अपरिमित गुणों की थाह पा सकें । कौन ऐसा शक्ति सम्पन्न होगा,जो तुझ ज्ञानस्वरूप प्रकृतिपर परमात्मा के अप्राकृत ज्ञान की शेष सीमा तक पहुंच सके । ऐसा कौन होगा,जो तुझ अरूप विश्वमोहिनी नित्य रूप छटा का सर्वथा साक्षात्कार कर उसका यथार्थ चित्रण या वर्णन कर सकेें । कौन ऐसा पे्रमी होगा,जो तुझ अपार अलौकिक पे्रमार्णव मेें प्रवेश कर उसके अतल तल में सदा के लिए डूब सकें । फिर तुम ही बताओ,तुम्हारे रूप,सौदर्य-माधुर्य,गुण,ज्ञान और अतुलित बल का विवेचन कर सकेें । हे कृष्ण ! तुम्हारे समान केवल तुम ही हो,दूसरा कोई नहीं है । तुम्हारे रूप,ज्ञान और पे्रम का दिव्य ध्यान ज्ञान जनित अनुभव भी तेरी कृपा बिना तुझ देश काल कल्पनातीत अकल कल्याण निधि के वास्तविक स्वरूप के कल्पित चित्र तक भी पहुंचकर उसका सच्चा वर्णन नहीक र सकता फिर अनुभवशून्य कोरी कल्पनाओं की तो कीमत ही क्या है । वस्तुतत तेरे स्वरूप और गुणों का मनुष्यकृत महान से महान वर्णन भी यथार्थ तत्व को जाननेवाला न होने के करण महान तेज पुंज सूर्यमण्डल को जरा सा जुगनू बतलाने के सदृश्य एक प्राकर से तेरा अपमान ही है परतूत तू दया का सागर है । तरे पे्रमी कहा काते हैं कि तू प्यारे -दुलारे नन्हें बच्चों की हरकत5ों पर कभी नाराज नहीं होता बल्कि स्नेहवश सदा पे्रम करनेवाली मां की तरह अपना चिन्तन या नाम गुण ग्रहण करनेवाले के प्रति प्रसन्न ही होता है । तू उन पर कभी नाराज नहीं होता । बस,इसी तेरे विरद के भरोसे पर मै भी यह मनमानी कर लेता हूं । पर भूला ! मेरी मनमानी कैसी र्षोर्षो नचानेवाला तो तू एक ही सूत्रधार है । तू जो उचित समझे वही कर । तेरी लीला में कौन खलल डाल सकता है । पर मेेरे प्रिय कृष्ण ! तुझसे एक प्रार्थना है । कभी-कभी अपनी मोहिनी मुरली के स्वर सुनाकर मेरे व्यथित हृदय को शीतलता प्रदान कर और उचित समझे तो तेरे रूप-माधुर्य सुधा की दो-एक बून्द पिलाने के लिए मेरे घर आया-जाया कर ।
तुझे ही नेति-नेति कह कर पुकारा गया है । तेरे पे्रम प्रसाद को पाकर कोई अन्यत्र क्यों जाएगा । तेरी रूप-राशि और अपार पे्रमाश्रय को पाकर कोई तेरा दामन छोड़ना नहीं चाहेगा । जो तू है सो तू ही है । तू ही अनन्त है । यह जो कुछ भी दिखाई देता है और जो दिखाई नहीं देता,वह भी तू ही है । जो ज्ञान में आता भी है और नहीं भी आता है । जो अनुभव से परे है,जिसे जानना तेरे ही हाथ में है । तो बता हे कृष्ण ! तेरी कृपा के बिना क्या कुछ भी सम्भव हो सकता है र्षोर्षो शायद नहीं,तो तू अपने जनों के लिए ही है न ..इसीलिए तूने कहा है कि तू ही अपने जनों का एक आत्मीयजन है । यह योग-क्षेम तू ही वहन करता है । तू धन्य है हे कृष्ण !
हे कृष्ण ! तू अनन्द है तेरी लीला अनन्त है । तेरे इस अनन्त से अपने पे्रम की एक बूंद मुझे भी पिला दिया कर ।
तेरा अपना--कृष्णशंकर
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कविता


अलवाना
--प्रताप राव कदम
बेतहाशा भागते
वह जो अलग हुआ झुण्ड से
बचने की जुगत में
मारा गया वही,अलग सबसे

अलगाना अपनों से
अनेक दफे झुण्ड से अलग हुए हिरण सा ही होता है
पर तब तक समझ कहां आती है ।

पता- 11,शकुन नगर,प्रोफेसर कालोनी,खण्डवा मप्र- दूरभाष